किसी के नहीं होते दोगले लोग - डॉ. दीपक आचार्य
थार एक्सप्रेस इंसान के पूरे जीवन में मित्र और शत्रु दोनों प्रकार के लोगों से पाला पड़ता है। इनमें हो सकता किसी कारण से अथवा समझ आ जाने पर अथवा स्वार्थ के वशीभूत होकर कोई शत्रु मित्र बन जाने का ढोंग रच ले अथवा कोई मित्र बेवजह शत्रु हो जाए। 
इन दोनों ही किस्मों के अलावा वृहन्नलाओं की ही तरह एक तीसरी किस्म और है जिसमें वे लोग आते हैं जो दोगले हुआ करते हैं। ये मित्र और शत्रु दोनों भूमिकाओं का पूरा-पूरा जीवंत अभिनय करने में माहिर हुआ करते हैं। ये जब अपने सामने होते हैं तब हद से ज्यादा विनम्र होते हुए अपार श्रद्धा, आदर और सम्मान के भाव दर्शाते हैं और अपने लिए दादा, भाईसाहब, गुरुजी, गुरु, मालिक, प्रभु, मैम साहब, मैडम, बहनजी, माताजी, भाभीजी, बोस, साहबजी, सर जैसे कितने ही आदरास्पद शब्दों का अंधाधुंध इस्तेमाल कर पूरी रीढ़ को धनुष बना डालते हुए झुक कर दूआ-सलाम करते हैं। 
कितने ही पाँवों तक झुक जाते हैं, खूब सारे घुटनों तक झुक कर अपार श्रद्धा और सम्मान दर्शाते हैं। और भी जाने क्या-क्या अभिनय करते हुए ढेर सारी विनम्री और विनयी मुद्राओं का प्रदर्शन कर अपने आपको धन्य समझते हैं। तब लगता है कि जैसे ये श्रद्धा और आदर उण्डेलने के मामले में पहली बार खाली हो रहे हैं। 
यह आश्चर्य भी होता है कि इनके मन में इतनी अपार श्रद्धा अचानक जाने कहाँ से उमड़ आयी है। लेकिन यह सारी श्रद्धा तभी तक बनी रहती है जब तक हम सामने हुआ करते हैं। सामने से हटें नहीं कि अभिनय का दूसरा पार्ट शुरू हो जाता है। 
ऎसे लोगों की अपने यहाँ कोई कमी नहीं है जो पीठ पीछे अपनी बुराइयों का समंदर उमड़ा देते हैं और सामने दिख जाने पर श्रद्धा का ज्वार। एक ही आदमी के लिए क्षण में श्रद्धा, क्षण में बुराइयों का यह अभिनय आदमी के सिवा और कोई नहीं कर सकता। यह आदमी ही है जो दोगले व्यवहार में सिद्ध हो चुका है और मौके की नजाकत अथवा अपनी मौजूदगी-गैर मौजूदगी में उसका व्यवहार बिल्कुल उलट हो जाता है। 
कुछ दशकों पहले तक आदमी के भीतर दोगलेपन की यह बुराई उतनी व्यापक नहीं थी जितनी कि आज हर जगह देखने को मिलती है। एक अनपढ़ देहाती में उतना दोगलापन देखने को नहीं मिलता जितना कि समझदार लोगों में। जाने किस भाग्य से अपने हाथों में उस्तरे पा चुके लोगों में यह दोगलापन सबसे ज्यादा दिखता है। 
आजकल हर तरफ दोगले लोगों के वजूद का परचम लहराने लगा है। इंसान जब हर तरफ से निरपेक्ष और निष्काम कर्मयोगी होता है, तब उसे दोगलेपन का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती है लेकिन जब आदमी के भीतर स्वार्थ की पूत्रि्त के लिए पापी मन-बुद्धि का जागरण हो जाता है तब आदमी घर-परिवार से लेकर दुनियादारी तक कहीं भी सहज, सत्य और निरपेक्ष नहीं रह पाता। उसका पूरा जीवन पग-पग पर दोहरे चरित्र वाला हो जाता है और यही कारण है कि आजकल खूब सारे लोग दोगले हो गए हैं जो क्षण-क्षण में दोगलेपन का परिचय देने लगे हैं। 
आज अच्छे इंसान को सबसे ज्यादा खतरा किसी हिंसक जानवर, आतंकवादी, पागलों या शत्रुआें से नहीं है बल्कि उन लोगों से है जो दोगले हैं। दोगले लोग अपने स्वार्थ के अनुपात में किसी भी क्षण पाला बदलकर किसी पर भी कहर ढा सकते हैं। इन लोगों के लिए अपने स्वार्थों, अपने मिथ्या वजूद और ऎषणाओं के आगे सामने वाले का कोई अस्तित्व नहीं होता। न ये लोग अपने घर वालों के हो सकते हैं, न औरों के। 
इनके जीवन की न कोई स्पष्ट दिशा होती है न दशा। जैसा माहौल, वैसा ढल जाना इनके स्वभाव में होता है। ऎसे दोगले लोगों में एक भी ऎसा नहीं होता जो दिल से किसी अच्छे काम या व्यक्ति की तारीफ करता हो। जो लोग सहज और सुखपूर्वक जीवन जीने के अभिलाषी हों, उन्हें चाहिए कि वे ऎसे दोगले लोगों से यथोचित दूरी बनाए रखें और यह प्रयास करें कि ये हमसे दूर ही रहें, क्योंकि इनके सान्निध्य का सीधा सा अर्थ है अपने बारे में किसी नकारात्मक चर्चा को सुनना और दोगले लोगों के प्रति गंभीर होना।

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