आंसुओं में डूबती जैसलमेर की विरासत

- लक्ष्मी नारायण खत्री
विष्व विख्यात जैसलमेर 859 वर्ष का हो गया है । इसकी स्थापना यदुकूल कृष्णवंषी भाटी राजपूत राजा जैसल जी ने 12वीं शताब्दी में की थी । इससे पहले भाटियों का राज्य लौद्रवा था जिसे मोहम्मद गोरी की सेना ने राजा भोजदेव के भतीजे जैसल के सहयोग से उजाड़ दिया था।
वक्त ने करवट बदली और स्वर्ग सा सुन्दर जैसलमेर आज की स्थापत्य कला की विरासत सपना बन देष विदेष के कला अनुरागी मरूस्थल सैलानियों की पहली पसंद बन गया है। लेकिन बड़े दुःख की बात है जिस विरासत को देखने दुनिया आ रही है वह उचित देखभाल के अभाव में तीव्र गति से नष्ट हो रही है । देष की पाकिस्तान सीमा के पास बसा जैसलमेर प्राचीनकाल से ही सभ्यता एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है इसके पष्चिम दिषा में मोहनजोदड़ों व हड़प्पा सभ्यता की खोज हो चुकी है जैसलमेर की धरती में भी प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता के खण्डहर रेत में दबे पड़े है।
जैसलमेर अपने वीर शासकों गौरवमयी रीति-रिवाजो, परम्पराओं विषाल रेतीले धोरों सुन्दर गगन चुम्बी हवेलियों लोकगीत संगीत देवी-देवताओं तथा सोनार किले के कारण पहचाना जाता है।
आंसूओं में डूबा सोनार किला
कोई एक वर्ष पहले पीले पत्थरों से निर्मित जैसलमेर किले के महत्व को देखते हुए यूनेस्को ने इसे विष्व धरोहर के रूप में मान्यता प्रदान की है लेकिन इसके संरक्षण की कोई ठोष योजना सामने नहीं आई है। यह किला जर्जर हो रहा है । किले में परकोटे के ऊपर से मल-मूत्र का गंदा पानी षिव रोड़ पर पिछले कई वर्षाे से बह रहा है। इससे किले की नींव कमजोर हो रही है किले को सर्वाधिक नुकसान परम्परागत जल निकासी की व्यवस्था बिगडने से हो रहा है फलस्वरूप गंदी नालियों का व वर्षा का पानी किले की नींव में रिस रहा है तथा सम्पूर्ण किले को कमजोर कर रहा है । परकोटे व बुर्जाे में दरारें आ रही है किले के संरक्षण के नाम पर देष-विदेष की अनेक संस्थाएँ दिल्ली में बैठी करोड़ों रूपये एकत्रित कर रही है । लेकिन किले को वास्तविक समस्या पर इन संस्थानों का ध्यान नहीं ह ै। किले के भीतर आवासीय घरों में दरारें आ रही है तथा घरों से निकलने वाला गंदा पानी भी पहाड़ों को कमजोर कर रहा है ।
लावारिस पड़ी 84 गांवों की सम्पदा
मरूप्रदेष में पालीवाल ब्राहमणों ने 84 गांव बसाये थे। पालीवालों ने यहां कृषि का व व्यापार का खूब विकास किया। यह एक समपन्न समुदाय था जो कि नाराज होकर एक ही रात में अपने आलीषान मकान व अन्य जायदाद छोड़ कर दो सौ वर्ष पहले चले गये थे। पालीवालों के गांवों की बसावट, कुएँ, तालाब खडीन शमसान देवी देवताओं के मंदिरों आदि के कलात्मक व इतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पूरा अवषेष गांवों में चारों तरफ बिखरे पड़े है। पालीवालों के बडे गांव कुलधरा व खाभा के संरक्षण के कुछ प्रयास हुए बाकी के गावों में अतिक्रमण हो रहे है नष्ट हो रहे है और रेत में दब रहे है।

ये है विरासत का खजाना
जैसलमेर में मैने गुप्तकालीन एवं मौर्य काल के अनेक खण्डित मंदिर व मूर्तियां देखी है। लौद्रवा, चूंधी, संचियाय में सैकडों पाषाण प्रतिमाएं खम्भे तरासे हुए पत्थर असुरक्षित पड़े है जो कि पन्द्रह सौ वर्ष पहले के बने हुए है । इनकी सुरक्षा नहीं होने से पुरा महत्व की सम्पदा चोरी हो रही है या रेत में दब रही है । भाटी ठाकुरों जैन सेठों आदि ने यहां गांव -गांव में सुन्दर तालाब कुए पगबावडियां आम आदमी के हितार्थ व्यास बुझाने के लिये बनवाए थे । इनके बेजोड़ घाट छतरियां गिर रही है। इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है ।
जैसलमेर के जागीरदारो के किले जैसे गणेषिया रामगढ, फतेहगढ लाठी शाहगढ हड्डा फतेहगढ घोटारू किषनगढ लखा देवीकोट मोहनगढ नाचना आदि रेत के धोरों के बीच बने किले है जो कि स्थापत्य कला की दृष्टि से अनूठी कृतियां है इसकी भी कोई देखरेख नहीं है तथा खण्डहर मे बदल रहे है । 
18वीं शताब्दी में बनी दीवान सालमसिंह हवेली के अनेक झरोखे गिर गए है। इसी प्रकार पटवों की हवेली में अनेक जगह दरारें आ गई है तथा एक हवेली के गोखडे एवं कंगूरे गिर गए है तथा छतों में वर्षा का पानी रिस रहा है।
अमरसागर के चारों और वैद्य-अवैध खनन हो रहा है अतः इस तालाब में पानी आना बन्द हो गया है तथा इसका अस्तितव खत्म हो रहा है । राजाओं के शमसानघाट बडाबाग में प्राचीन एवं ऐतिहासिक छतरियाँ जिसमें महत्वपूर्ण षिलालेख लगे हुए है देखभाल के अभाव में दयनीय स्थिति में है तथा जिन्दे इतिहास की मौत हो रही है । वैषाखी स्थित 12वीं से 16वीं शताब्दी के षिव मंदिर बावडियां जहां तीर्थस्थल है, यहां चारों तरफ देवी-देवताओं की भग्न मूर्तियां लावारिष स्थिति में पड़ी है। गजरूपसागर की पठियालें व छतरियों के अनेक पत्थर चोर उठा कर लेकर चले गये गये है। गुलाबसागर, प्राचीन देवी शक्तिपीठों तनोट, घंटियाली, आदि अपना प्राचीन स्वरूप खो रहे है इसके अतिरक्त विभिन्न मंदिर, पालीवालों के 84 प्राचीन गांव में स्थित खड़ीन एवं अन्य पुरा सम्पदा का खजाना बिखरा पड़ा है । लौद्रवा स्थित मूमल की मेड़ी के अनेक पत्थर अब दिखते ही नहीं है 11वीं सदी के इस स्थान पर सेनापति शहाबुदीन गौरी एवं राजा भोज के बीच जंग हुई थी, जंग के बाद लौद्रवा पूर्ण रूप से उजड़ गया था इस स्थान पर भी नई बस्तियां बस गई है तथा इतिहास का यह महत्वपूर्ण कालखण्ड दब गये है।
कुल मिलाकर स्थापत्य कृतियों के हाल बुरे है, तथा इसकी कोई गंभीरतापूर्वक सार-संभाल नहीं है, ओर यहां कोई सरकारी पुरातत्व संरक्षक या पुरातत्व वेदा नियुक्त नहीं है तथा लोग भी इसका महत्व समझ नहीं पा रहे है। स्थानीय राजनेताओं की उसमें कोई रूचि नहीं दिख रही है। प्रषासनिक अधिकारियों का ध्यान भी इस और नहीं जा रहा है ।
षिक्षा एवं संरक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण
यहां के नागरिकों को भी धरोहर के महत्व को समझना होगा और इन्हें इसके वैभव पर गौरव भी होना चाहिये और हर व्यक्ति में धरोहर संरक्षण की भावना को समझना होगा। जैसलमेर की स्थापत्य धरोहर खत्म हो जायेगी तो भाटी राजाओं द्वारा बसाये गये इस नगर का शाष्वत इतिहास भी खत्म हो जायेगा तथा आने वाली पीढी को भी बड़ा दर्द होगा। यह विरासत सम्पूर्ण विष्व समुदाय के विरासत संरक्षण में लगे लोगों के लिये एक दस्तावेज के रूप में महत्वपूर्ण है तथा इतिहास एवं पुरातत्व में पीएचडी देने वाले विष्वविद्यालयों के लिये सरस्वती का स्थापत्य कला की साधना करने वाले शोधार्थियों के लिये एक खजाना है। 
यहां के महत्वांकाक्षी पर्यटन व्यवसाईयों और जागरूक नागरिकों को भी धरोहर के संरक्षण महत्व को समझना होगा। अगर स्थापत्य व सांस्कृतिक परम्पराएँ खत्म हो गई तो यहां कोई पर्यटक नहीं आएगा तथा लाखों करोड़ों की लागत से बनी होटलों में कबूतर बोलेंगें।
हमारी समृद्ध धरोहर ने ही पर्यटन व्यवसाय का यहां विकास किया है तथा घर बैठे रोजगार मिल रहा है तथा जैसलमेर की अन्र्तराष्ट्रीय महत्व की धरोहर संरक्षण के लिये सरकार को भी एक आयोग या अकादमी बना कर भविष्य की योजनाओं की ठोष निर्माण की आवष्यकता है।
(लेखक 15अगस्त-2008 को राज्य स्तर पर ‘‘लोक विरासत संरक्षण’’ योगदान के लिए राज्य सरकार से सम्मानित प्रतिभा है)

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