हित की बात छोटे बच्चे से भी सीखनी चाहिये- साध्वी प्रियरंजनाश्री
बाड़मेर।
थार नगरी बाड़मेर में चातुर्मासिक धर्म आराधना के दौरान स्थानीय श्री जिनकांतिसागरसूरि आराधना भवन में साध्वीवर्या श्री प्रियरंजनाश्रीजी म.सा. ने चातुर्मास के सत्रहवें दिन अपने प्रवचन में गुणानुरागी के बारे में कहा कि हित की बात छोटे व्यक्ति के पास हो तो स्वीकार करनी चाहिये। एक छोटा वाक्य भी व्यक्ति को प्रेरित कर देता है। ‘चलना है पर रहना नहीं’ इस वाक्य से बादशाह फकीर बने।
आंख छोटी है पर सम्पूर्ण विश्व को देखती है, हाथी अंकुश से नियंत्रण में आता है, नाव एक छिद्र से डूब जाती है। लव-कुश को चाचा की बात से वैराग्य हुआ। सूर्य अस्त होने की दशा से हनुमान को वैराग्य हुआ। चन्द्रगुप्त चाणक्य की बात मानते थे। श्रेणिक राजा अभयकुमार हरिजन की बात मानते थे। एक हरिजन की दो विद्याऐं सीखने के लिए हरिजन को राज्य सिंहासन पर बैठाया और श्रेणिक नीचे बैठे तभी दो विद्याऐं सीख सके।
घर में दादा-दादी, पोते-पोती को सिखाते ही हैं और पोते-पोती को दादा-दादी के पास बैठकर ज्ञान सीखना चाहिये ना कि टी.वी., मोबाईल में। पोता-पोती भी सही सलाह दें, हितकारी बात करें तो दादा-दादी को भी उनकी सलाह माननी चाहिये। टी.वी. चल रहा हो तो उस दृश्य के सामने खाना नहीं खाना चाहिये, खाना खाते समय भी मोबाईल से बात नहीं करनी चाहिये ताकि खाना अच्छी तरह पचे, भोजन का रस शरीर को शक्तिवर्धक बनाये।
साध्वी प्रियदिव्यांजनाश्री ने अपने प्रवचन में कहा कि मिथ्यात्व चार तरह के होते हैं पहला देवगत लौकिक मिथ्यात्व, दूसरा गुरूगत लौकिक मिथ्यात्व, तीसरा देवगत लोकोत्तर मिथ्यात्व एवं चैथा गुरूगत लोकोत्तर मिथ्यात्व।
उन्होनें कहा कि हमारी रूचि आध्यात्मिक होनी चाहिये ना कि भौतिक। शिव राजर्षि को विभंग ज्ञान हुआ और सात समुद्र तक व नात द्वीप तक अपना ज्ञान बताया, जबकि भगवान ने केवल ज्ञान के बाद बताया कि असंख्यात समुद्र व असंख्यात द्वीप हैं। हम जहां रह रहे हैं वह जम्बू द्वीप है। जम्बू द्वीप के बाहर लवण समुद्र, लवण समुद्र के बाहर घातकी खण्ड, घातकी खण्ड के बाद कालोदधि समुद्र, कालोदधि समुद्र के बाहर अन्तरार्द्ध द्वीप है। केवल ज्ञानी तीर्थंकर भगवान को जन्म से ही अवधि ज्ञान होता है।
साध्वीश्री ने बताया कि श्राद्ध को मानना, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को मानना देवगत लौकिक मिथ्यात्व है। तापस, पीर, फकीर को गुरू मानना, पूजा-अर्चना करना गुरूगत लौकिक मिथ्यात्व है।
तीर्थंकर भगवान की पूजा-अर्चना कर उनसे भौतिक वस्तु मांगना लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व है। साधु-साध्वी को साधु मानकर भौतिक चीजें मांगना लोकोत्तर गुरूगत मिथ्यात्व है।
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