ज्ञानहीन और प्रतिभाशून्य होते हैं पिछलग्गू , चापलूस और हरामखोर

- डॉ. दीपक आचार्य

जिन लोगों में स्वाभिमान, संस्कार और आदर्श भरे होते हैं उन लोगों में हमेशा यह कमी रहती है कि वे पालतु, फालतू और दुष्ट लोगों का आदर-सम्मान नहीं कर पाते। ये लोग जैसे भीतर होते हैं उतने ही बाहर होते हैं। इनकी कथनी और करनी तथा आचरणों में वही शुद्धता बनी रहती है जो इनके विचारों में बाहर झलकती रहती है। 

स्वाभिमानी और शुद्ध-बुद्ध लोग किसी भी तरह से न दोहरा चरित्र या व्यवहार रख पाते हैं और न ही किसी की फालतू जी हूजूरी। संस्कारों, संस्कृति और स्वाभिमान से परिपूर्ण लोगों की कमजोरी कहें या विलक्षणता, मगर ऎसे लोग हमेशा दूसरों का आदर-सम्मान मूल्यांकन के बाद ही करते हैं और ऎसे में कोई कितना ही बड़ा या प्रभावशाली आदमी इनके सामने हो, ये उतना ही सम्मान देते हैं जिसके लिए सामने वाला पात्र होता है।

ऎसे लोगों के लिए पद, प्रतिष्ठा, पैसा और प्रभाव ज्यादा मायने नहीं रखता बल्कि व्यक्तित्व के आदर्श प्रधान होते हैं। मनुष्यता और हुनर से परिपूर्ण लोग इसलिए परेशान जरूर रहते हैं मगर इनके भी जीने का अपना अलग ही मस्ती भरा अंदाज होता है जिसे सामान्य लोग जिन्दगी भर समझ नहीं पाते।

दूसरी ओर ऎसे लोगों की संख्या आजकल खूब बढ़ती जा रही है जो प्रतिभा, ज्ञान और व्यवहार से लेकर संस्कारों और मानवीय संवेदनाओं से शून्य हैं अथवा आधे-अधूरे हैं और ऎसे में ये अपने बूते कभी कोई काम नहीं कर पाने की विवशता और आत्महीनता से ग्रस्त होते हैं।

ऎसे लोगों को हमेशा किसी न किसी बैसाखी या बाहरी पॉवर की जरूरत पड़ती है और यह उनके पूरे जीवन की वो मजबूरी हो जाती है जो इन्हें हमेशा जिन्दा होने का अहसास कराती रहती है। जिनके पास कुछ नहीं है, उन्हें बहुत कुछ दिखने और दिखाने के जतन करने पड़ते हैं और ऎसे में हर तरफ उन लोगों की भारी भीड़ जमा है जो किसी न किसी रूप में मानसिक विकलांगों जैसी ही है।

इन्हें सामान्य लोग प्रभावशाली या लोकप्रिय कह सकते हैं लेकिन समझदार लोगों के लिए ये प्रतिभाशून्य और ज्ञानहीन होते हैं और यही कारण है कि इन लोगों को हमेशा किसी न किसी सहारे की जरूरत पड़ती है। अधिकांश लोगों में हुनर का अभाव देखने को मिलता है और इनके लिए वे सारे बाड़े अपने काम के होते हैं जहाँ हरी-हरी घास, भांति-भांति के वन्य जीव और पसरा हुआ पानी मिलता रहे।

कई लोग प्रायःतर एक ही किस्म के बाड़ों में रह नहीं पाते। मौसम बदलते ही पाले बदल डालते हैं, एक बाड़े से कूदकर दूसरे बाड़े में छलांग लगा डालते हैं और इस तरह बंदरिया उछलकूद करते हुए ये अपनी रोटियाँ सेंकते रहते हैं।

श्रद्धा और सम्मान तथा आदर के पैमाने अब बदल गए हैं। अब आदमी किसी के ज्ञान, हुनर और आदर्शों की अपेक्षा अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए कभी लम्बी कूद का सहारा लेता है कभी ऊँची छलांगें मारते हुए तीसमार खाँ बना फिरता है।

इन सभी गोरखधंधों के बीच एक बात जरूर है कि इन दिनों हर तरफ ऎसे-ऎसे लोगों की भीड़ छायी हुई है जिनके लिए दूसरों की चापलुसी करना, झूठा जयगान करना और अपनी बिगड़ी बनाने वाले मरणधर्मा लोगों के चरणस्पर्श करते हुए परिक्रमाएं कर प्रशस्ति भरे घूमर नृत्य करना जिन्दगी का वो अहम सच बन चुका है जिसके बगैर इनकी जिन्दगी कुछ नहीं है।

हर तरफ ऎसे लोगों की भारी भीड़ दिखाई देने लगी है जिनके बारे मेंं थोड़ा गंभीरता से सोचें तो पता लगेगा कि ये लोग चाह लें तब भी कोई और धंधा कर भी नहीं सकते। चाहे इसके लिए कितनी ही पूंजी या संसाधनों की व्यवस्था क्यों न हो जाए। मुँह में खून लगना मुहावरा अब बदल कर हराम की कमायी का चस्का लग जाना हो गया है।

इन लोगों की पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा-दीक्षा, संस्कार, सामाजिक मूल्य, सांस्कृतिक रुचियों से लेकर वाणी, व्यवहार, हाव-भाव, खान-पान और सब कुछ में कहीं से मनुष्यता का धीर गांभीर्य या मानवीय मूल्य कहीं नज़र नहीं आते। 

यही कारण है कि घोर कलियुग के भीषण प्रभाव के मारे ऎसे लोगों की नई प्रजाति का जन्म होने लगा है जो कॉकटेल जैसी है और जहाँ देखो वहां दिख ही जाती है। ऎसे लोगों को प्रथम दृष्ट्या देखे जाने पर सामान्य से सामान्य आदमी भी इनके बारे में यह पक्की धारणा बना ही लेता है कि ये लोग समाज के किसी काम के नहीं हैं लेकिन किसी न किसी तरह कहीं न कहीं से कमा खाने का हुनर भगवान ने जरूर दे डाला है वरना इंसानों की काफी संख्या भूखमरी का शिकार होती रहती और इससे भगवान का काम और अधिक बढ़ जाता।

ऎसे लोगों के बारे में यह धारणाएं समाप्त करने की जरूरत है कि इनके भरोसे ही दुनिया चल रही है। यह खरपतवार हमारी कमजोरी और लापरवाही या उपेक्षा के कारण पनप रही है। अच्छे लोगों को संगठित होकर आगे आने की जरूरत है ताकि समाज और देश को परम वैभव पर पहुंचाया जा सके।

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