पुराने वर्ष को विदा देकर नए वर्ष में प्रवेश के द्वार खोलता है यह धाम
- कल्पना डिण्डोर
आदिवासी क्षेत्रों में हर माह मेलों और पर्वों की धूम मची रहती है। इनमें कई बड़े-बड़े मेले लगते हैं जिनमेें हजारों से लेकर पांच-दस लाख मेलार्थी हिस्सा लेते हैं। राजस्थान के दक्षिणी भूभाग में लगने वाले मेलों में घोटिया आम्बा का मेला भी बडे मेलों में शुमार है जिसमें वागड़ के अलावा गुजरात और मध्यप्रदेश के समीपवर्ती इलाकों से हजारों की संख्या में मेलार्थीै भाग लेते हैं।
घोटिया आम्बा की वादियां हर साल साक्षी होती हैं पुराने वर्ष को विदाई और नए चैत्री वर्ष के स्वागत,वंदन और अभिनंदन की।
नव वर्ष का परंपरागत उल्लास
विश्व भर में जहाँ 31 दिसम्बर को वर्ष के अवसर पर दिल खोल कर मौज-मस्ती का दरिया बहाते हुए पुरानी यादों और गमों को विस्मृत कर नये वर्ष का आवाहन किया जाता है वहाँ भारतीय संस्कृति में वर्र्ष का शुभारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है जब अमावस्या की काली रात के साथ वर्ष का समापन होकर नवप्रभात का सूरज उल्लास की रश्मियाँ बिखेरता है और शुक्ल पक्ष की दूधिया चाँदनी उमंग की सुधा बरसाती है।
देश भर में चैत्री नव वर्षोत्सव की अनेकानेक इन्द्रधनुषी परम्पराएँ, मुग्ध कर देने वाले अनुष्ठान, लोक रंग और अनूठे टोने-टोटके सदियों से विद्यमान रहे हैं। देश के जनजाति बहुल इलाकों मेें आज भी नव वर्ष के आवाहन की ऎसी मनोहारी परम्पराएँ विद्यमान हैं जिनका दिग्दर्शन आह्लाद का ज्वार उमड़ा देने वाला है।
लोक लहरियों के साथ अभिनंदन नव वर्ष का
ख़ासकर राजस्थान के सुदूर दक्षिण में मध्यप्रदेश ओैर गुजरात के सटे वाग्वर प्रदेश (वागड़) में नव वर्ष का अभिनन्दन ख़ास अन्दाजों के साथ किया जाता है। जहाँ झंकृत होती रहती हैं लोक नृत्यों की स्वर लहरियाँ, माहौल में बिखरते हैं लोक रंग और पावन सलिलाओं का स्वागत गान उफन-उफन कर हिलोरें लेता हर किसी को मदमस्त कर देता है।
इस अँचल का हर पर्व, तीज-त्योहार और मेला मेल-मिलाप की पुरातन संस्कृति का प्रतीक रहा है जिसमें समाए होते हैं वनवासी संस्कृति के पुरातन रंग और भीनी-भीनी महक फैलाते रस।
जंगल में मंगल का जयगान
घर-गृहस्थी में उलझी रोज़मर्रा की जिन्दगी से कोसों दूर रहकर पुराने वर्ष की विदाई और नव वर्ष के स्वागत की परम्परा यहाँ के लोग दुर्गम जंगलों में अवस्थित घोटिया आम्बा तीर्थ के पहाड़ों में पूरी करते हैं जहाँ की उपत्यकाएँ ”जंगल में मंगल“ का जयगान कर पूरे वनाँचल को देती हैं नव वर्ष का संदेश ।
फागुन का समापन मेला है यह
जाने कितने युगों से सतत् प्रवह्मान इस परम्परा में पाण्डवों की विहारस्थली रहे घोटिया आम्बा तीर्थ पर हर साल होली के पन्द्रह दिन बाद विक्रम संवत् के अंतिम दिन अमावस्या को लगने वाले मेले में इस सीमावर्ती अँचल के हजारों-हजार वनवासी अपने परिवार के साथ यहाँ के जंगलों में आकर सामूहिक रूप से पुराने वर्ष को विदा कर नव वर्ष के स्वागत में जश्न मनाते हैं। इस बार यह मेला रविवार से शुरू हुआ और द्वितीया 12अप्रेल तक चलेगा। मुख्य मेला अमावास्या के दिन 10 अप्रेल, बुधवार को भरेगा।
देवदर्शन के साथ मेले का आनंद
इसमें मेलार्थी खाने-पीने का सामान अपने साथ लाते हैं व घोटिया आम्बा तीर्थ के देवस्थलों में दर्शन व मेले का आनंद लेते हैं। कई किलोमीटर छितराए पहाड़ों के आँचल में ये समूह दाल-बाटी, चूरमा, दूध-पानीये आदि पका कर परिजनोें के साथ सामूहिक गोठ (पिकनिक)कर मौज-मस्ती लूटते हैं तब पारिवारिक सौहाद्र्र और प्रगाढ़ आत्मीयता की लहरें उफन-उफन कर वनाँचल की पारंपरिक मैत्री और सद्भाव का पैगाम गूंजाती प्रतीत होती हैं।
प्रकृति की गोद में मिलता है सुकून
घोटिया आम्बा का मनोहारी नैसर्गिक परिवेश ही ऎेसा है कि यहाँ आने वाला हर कोई जीवन के संत्रासों, विषादों और भविष्य की तमाम आशंकाओं को भूल कर असीम आनंद के सागर में डूब जाता है।
रमणीय घोटिया आम्बा क्षेत्र में चारों और बडे़-बडे़ वृक्षों से भरी पहाड़ियाँ, दुर्गम घाटियाँ, शीतल जल के सोते और वन्य जीवों की अठखेलियाँ प्रकृति के अनुपम वैभव को व्यक्त करती है तो राजस्थान, गुजरात ओैैर मध्यप्रदेश के सीमावर्ती अँचलों से परम्परागत परिधानों में जमा वनवासी स्त्री-पुरुषों, लोकवाद्यों के साथ फाल्गुनी गीतों की झंकार और नृत्यों की मनोहारी फिज़ाँ वनवासी संस्कृति के प्राणों को बखूबी रूपायित करती है।
फागुनी बयारों के साथ मेले की मस्ती
करीब दो लाख से ज्यादा वनवासी इस परम्परागत मेले में नव वर्ष का स्वागत करने जुटते हैं। इनका मस्ती भरा माहोैल मेले के लिए अपने घर से रवाना होते समय ही शुरू हो जाता है जब ये समूहों में पैदल ही पहाड़ी रास्तों से होते हुए फागुनी बयारों के साथ पहुँचते हैं।
ढोल-ढमकों, कोण्डियों व थालियों को बजाते हुए लोक लहरियों का संचरण करते इन मेलार्थियों का उत्साह उनके उल्लसित चेहरों और लोक गीतों की स्वर लहरियों से निरन्तर झरता ही रहता है। भगत परम्परा के लोग घोटिया आम्बा के जंगलों में आकर भगवान का स्मरण करते हुए अलग-अलग समूहों में जमा होकर भजन-कीर्तन व संत वाणियों का गान करते हुए अगले वर्ष में सुख-समृद्वि के लिए कामना करते हैं।
आदिवासी समाज सुधारक एवं संंत महात्मा भी बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचकर धार्मिक एवं समाजिक चेतना का संचार करते हैं। नव वर्ष के स्वागत और अभिनन्दन के उल्लास में नहाते मेलार्थी यहाँ रंगझूलों व चकड़ोल में बैठकर हवा मेें तैरने का आंनद लेते हैं और मेले का भरपूर लुत्फ उठाने के बाद जंगल के पहाड़ों पर खुले आसमान तले खो जाते हैं नींद के आगोश में। महुए का पुष्प रस भी इस मेले में अपनी मदमस्ती भरी गंध बिखेरता दीख ही जाता है।
साल भर बरकत का पैगाम
विक्रम संवत् की पहली प्रभात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को बड़े सवेरे उठ कर पवित्र कुण्डों में स्नान व देव-दर्शनादि कर वर्ष अच्छा गुज़रने व खुशहाली की प्रार्थना के बाद मेलार्थी मेला-बाजारों से खरीदारी कर राह लेते हैं अपने घर की, नूतन उमंग, उल्लास व संकल्प के साथ ।
अंग्रेज़ीदाँ वर्ष के भड़काऊ शहरी आयोजनों को कहीं पीछे धकेल देने वाले इस नव वर्ष अभिनन्दन मेले में शहरी लोग भी परिजनों के साथ आकर सामूहिक पिकनिक का लुप्त लेते है और प्रकृति की गोद में रहकर नई ताज़गी का अनुभव करते हैं।
यह मेला लोक उल्लास का वह वार्षिक समागम है जिसमें भाग लेकर लोग पाण्डवों की साक्षी में नए साल में नवीन संकल्पों, नए वादों के साथ प्रवेश करते हैं। बांसवाड़ा जिले का यह सबसे बड़ा ग्रामीण मेला है जिसे पुराने जमाने से खूब मान्यता प्राप्त है। (लेखिका राजस्थान के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में अधिकारी हैं।)
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