एक ही दिन सिमटा क्यों रहे प्रेम का इज़हार

- डॉ. दीपक आचार्य

आज बसन्त पंचमी है और पाश्चात्यों का वेलेंटाईन डे भी। भारतीय संस्कृति और परंपराओं में वसन्तोत्सव का सीधा संबंध सृष्टि के प्रत्येक जीव से लेकर जगत, मन से लेकर परिवेश तक के लिए आनंद और उल्लास का ज्वार उमड़ाने वाला है।
कामदेव और रति से लेकर सृष्टि में प्रेम और आनंद के मूर्त्तमान स्वरूपों का यह प्रतिनिधि पर्व युगों से लोकमानस में वसंत खिलाता रहा है। यों देखा जाए तो वसंत ही है जो आदमी की आयु का पैमाना तय करता है तभी कहा जाता है कि अमुक ने इतने वसंत पूरे कर लिए हैं।
जीवन और वसंत का सीधा रिश्ता होता है और जो लोग अपने जीवन में अहर्निश वसंत का अनुभव करते हैं उन लोगों के लिए हर दिन वसंतोत्सव है। तभी कहा गया है कि वसंत आता नहीं,लाया जाता है।

वसंत का आनंद लेने के मामले में आज के मुकाबले पुरानी पीढ़ी के लोग ज्यादा भाग्यशाली हुआ करते थे। वे जीवन में वसंत को लाने और औरों को वसंत का अनुभव कराने का दम-खम रखते थे और उनका लाया हुआ वसंत घर-परिवार से लेकर परिवेश और क्षेत्र में अनुभव भी किया जाता था।

आज आदमी अपनी जिन्दगी में सब कुछ पा जाने के उतावलेपन में इतना उद्विग्न, अशांत और असंतोषी हो चला है कि उसे न अपने जीवन पर संतोष है, न अपने कर्मयोग पर।

हर क्षण कहीं से भी कुछ न कुछ पा जाने के फेर में आदमी दिन-रात इसी उधेड़बुन में लगा रहता है। उस पर यही भूत हमेशा सवार रहने लगता कि कैसे कहाँ से कुछ न कुछ पा लिया जाए और जमा कर ले अपने नाम से।

इस ऊहापोह से निकल कर वास्तविक जिन्दगी जीने का माद्दा पैदा करना होगा, तभी जीवन में वसंत का अनुभव किया जा सकता है। वासंती हवाओं में रमना और वासंती महक का अनुभव करना सब चाहते हैं लेकिन वासंती कर्मयोग को अपनाने के लिए कोई तैयार नहीं है।

अपनी हरकतों या कि वृत्तियों और स्वार्थों तथा नापाक लक्ष्यों को सामने रखकर किया जाने वाला प्रत्येक कर्म या गतिविधि दुर्गन्ध ही देती है और इन प्रवृत्तियों के आदी रहने वाले लोगों के लिए उनकी जिन्दगी में वसंत का आगमन कभी नहीं हो पाता।

जो लोग वासंती कर्मों से दूरी बनाए रखते हैं उनके लिए वसंत जीवन भर दूर ही रहता है। अपनी जिन्दगी में साल भर वसंत बनाए रखने के लिए उन कर्मों का परित्याग करना जरूरी है जो मनुष्य के लिए नहीं हैं।

इसके साथ ही मनुष्य धर्म के सभी लक्षणों को यदि पूरी तरह अंगीकार कर लिया जाए तो हमारे जीवन का हर क्षण वसंत ही होगा। एक जमाना था जब जीवन में सरस्वती की उपासना का यह वार्षिक पर्व हुआ करता था।

हर स्कूल-कॉलेज और संस्थान में सरस्वती की पूजा का विधान था। परिवेश में आम्र पुष्पों की महक हुआ करती थी और वैदिक ऋचाओं व सरस्वती के मंत्रों की गूंज वातावरण में चतुर्दिक पसरी रहती थी। तब ज्ञान की देवी सरस्वती भी दोनों हाथों से बुद्धि बाँटा करती थी।

आज लोग ज्ञान की बजाय मुद्रा की देवी लक्ष्मी या कुबेर की आराधना करने लगे हैं। सबको पैसा चाहिए, अनाप-शनाप जमीन-जायदाद चाहिए, चाहे फिर वह पुरुषार्थ से मिले या हराम की। अब सरस्वती सिर्फ तस्वीरों में कैद होकर कार्यक्रमों के उद्घाटन मंच तक कुछ फीट के घेरे में चंद क्षणों के लिए नज़रबंद होकर रह गई है।

असल में आज का दौर आते-आते हम इतने गिर गए हैं कि हमें ज्ञान नहीं चाहिए बल्कि अकूत धन-दौलत चाहिए। उल्लूओं की तरह हम लक्ष्मी की कृपा पाने के फेर में भटकने लगे हैं।

सरस्वती की उपेक्षा ही वह सबसे बड़ी वजह है कि हम दुर्बुद्धि, मंदबुद्धि या निर्बुद्धि होते जा रहे हैं जहाँ बुद्धि से अधिक बाहुबल और षड़यंत्रों, नाकाबिलों की चापलुसी और जयगान, हराम की कमाई के तमाम रास्तों का अनुकरण और मानवीय मूल्यों को धत्ता दिखाकर उन सारे कर्मों में लगे हुए हैं जो किसी जमाने में असुरों या डकैतों के हुआ करते थे।

वास्तव में देखा जाए तो हमारे भीतर अब न आदमी के गुण रहे है।, न संवेदनशीलता,आत्मीयता और प्रेम। जिस अनुपात में हम इन्हें छोड़ते गए, उसी अनुपात में बुराइयों का प्रवेश हमारे जीवन और समाज में होता चला गया।

लगभग इन्हीं दिनों में पाश्चात्यों का वेलेन्टाइन डे भी पड़ता रहा है। लोग इस दिन प्रेम का इज़हार करने का कोई मौका चूकना नहीं चाहते। प्रेम किसी उपहार या प्रशंसा का मोहताज नहीं होता,प्रेम हृदय की उस भाषा का माधुर्य है जिससे नदी के दोनों तटों के बीच सरस प्रवाह का दरिया उमड़ता हुआ एक-दूसरे को बिना किसी बंधन के भी बाँधे रखता है।

आज हमारे भीतर से प्रेम तत्व गायब हो चला है। साल भर हम प्रेम भले न करें, वेलेन्टाईन डे के दिन प्रेम का इजहार करने के लिए ऐसे-ऐसे नाटक और नौटंकियां कर लेंगे कि बस।

प्र्रेम करने और आत्मा से स्वीकार करने की बजाय अब सिर्फ दर्शाने भर या अभिव्यक्ति मात्र की वस्तु होकर रह गया है। एक दिन में इतना सारा प्रेम जता दिया जाता है कि अजीर्ण की नौबत आ जाती है।

हमारे यहां वसंतोत्सव, मदनोत्सव जैसे कई पारंपरिक पर्व हैं जिनमें रति और कामदेव का स्मरण, ज्ञान की देवी की साधना, प्रेम की परिपूर्णता का संकल्प और वास्तविक प्रेम का दिग्दर्शन,प्रकृति व परिवेश का सामीप्य पाते हुए वासंती आनंद की प्राप्ति आदि का विधान रहा है।

इनमें वर्ष भर प्रेम, माधुर्य, सौहार्द और आनंद की अभिव्यक्ति के साथ ही इन सभी कारकों को बहुगुणित करने के भाव समाहित रहे हैं। पूरे वर्ष पर मौज-मस्ती और आनंद का संकल्प लेने का दिन है। वेलेन्टाइन डे की तरह सिर्फ एक दिन प्रेम का सायास-अनायास, चाहे-अनचाहे इज़हार कर देने तक सिमटी नहीं रही है हमारी संस्कृति।

भारतीय परंपरा में जिन्दगी भर प्रेम और आनंद की सरिताएँ बहाते रहने के लिए प्रयत्न किया जाता है। मात्र एक दिन खूब सारा प्यार लुटा देने और अगले दिन से भूल जाने जैसी क्षणिक भोगवादी मानसिकता हमारे यहाँ कभी नहीं रही।

यथार्थ में देखा जाए तो वेलेन्टाइन डे के प्रेम की जड़ें नहीं हुआ करती, यह दोनों ही पक्षों या एक-दूसरे को भरमाने का प्रतीक है जहाँ इसी दिन चरम अभिव्यक्ति, उपहारों का आदान-प्रदान तथा उन्मुक्त स्वेच्छाचार एवं भोग-विलास का प्रदर्शन कर प्रेमाभिव्यक्ति की इतिश्री समझ ली जाती है।

इस प्रकार का प्रेम छद्म प्रेम कहा जाता है जैसा कि पाश्चात्यों के लिए चल सकता है, हमारे यहाँ कभी नहीं। हमारे यहाँ जो कुछ प्राप्त किया जाता है वह पीढ़ियों तक चलता है फिर चाहे वह प्रेम हो या आनंद।

सच्चा प्रेम वही है जिससे भीतरी आनंद की प्राप्ति हो और वह स्थायी भाव प्राप्त कर अनहद नाद को सुनने की क्षमता में अभिवृद्धि करे। प्र्रेम से आनंद की प्राप्ति होती है और जहां आनंद होता है वहां ईश्वर अपने आप प्रतिष्ठित हो जाता है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि जहाँ ईश्वर होता है वहाँ अनंत आनंद अपने आप पसर जाता है।

दो-चार दिन का प्रेम हो या काफी पुराना, इससे भीतरी आनंद न आए, उद्विग्नता समाप्त न हो,पशुता बनी रहे और प्राणी मात्र एवं जगत के प्रति संवेदनहीनता बनी रहे, उसे प्रेम नहीं कहा जा सकता, वह स्वार्थ पूर्त्ति और भोग-वासना का व्यापार ही है ।

सभी को वासंती जीवन के लिए हार्दिक शुभकानाएँ .....

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