वही शिक्षा-दीक्षा कारगर है जिसका सीधा संबंध हो समुदाय से
चिंतन - डॉ. दीपक आचार्य
आज हम शिक्षा को लेकर कई प्रयोगों, परियोजनाओं, योजनाओं और कार्यक्रमों के साथ विकास की दौड़ में भागे जा रहे हैं। शिक्षा को हमने धन कमाने मात्र का साधन बना दिया है जहाँ इसी लक्ष्य को लेकर हर कोई दौड़-भाग करने लगा है।
हर इलाके में लोग बेतहाशा भागते जा रहे हैं। गाँवों और कस्बों से लेकर महानगरों तक यही सब हो रहा है। ज्ञान का सीधा संबंध प्रत्येक व्यक्ति से लेकर समुदाय तक का रहा है। व्यक्ति जिस समुदाय में रहता है वहाँ समुदाय के परिपालन, रक्षण और विकास में भागीदारी निभाना उसका अपना फर्ज भी है और सामाजिक दायित्व भी।
इन सामाजिक दायित्वों की शुरूआत आदमी के समझदार होने के साथ ही शुरू हो जाती है। शैशव से लेकर मृत्यु पर्यन्त आदमी किसी न किसी रूप में घर-परिवार और समाज के लिए अपनी उपयोगिता सिद्ध करता रहता है।
वस्तुतः मनुष्य के रूप में उसी सामाजिक प्राणी की कल्पना की गई है जो समाज के लिए जीने और मरने के लिए कटिबद्ध रहता है। उस आदमी को सामाजिक प्राणी नहीं माना जा सकता है जो कि जानवरों की तरह खुद की उदरपूत्रि्त के लिए पूरी जिन्दगी रमा रहे।
केवल उदरपूत्रि्त करना मनुष्य का कर्म नहीं है बल्कि मनुष्य जहाँ है वहाँ हरेक का ध्यान रखना, परिवेश के प्रति गंभीर और संवेदनशील बने रहना तथा अपने जीवन का ज्यादा से ज्यादा उपयोग जरूरतमन्दों, समुदाय के बंधुओं और भगिनियों के लिए होने लायक अपने आपको बनाना तथा सदैव सामाजिक हितों का चिंतन करते हुए सामाजिक उत्थान के कर्मयोग में सहभागिता निभाना है।
वास्तव में मनुष्य के रूप में वही प्राणी सफल और सामाजिक कहा जा सकता है जो ‘जियो और जीने दो’ तथा ‘परस्परोपग्रहोपजीवानाम्’ के मूल मंत्र को आत्मसात करते हुए ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ तथा ‘तत्त्वमसि’ की भावना को अंगीकार करे। यही भावना सत्यं शिवं सुन्दरं का मनोहारी परिवेश रचती है।
इस भावना के साथ जो जीता है उसी का जीवन सार्थक है और उसी के पितर तथा माता-पिता और गुरु धन्य हैं जिनकी बदौलत ऎसे संस्कारों को परिपुष्ट होने तथा साकार होने का मौका मिला हुआ होता है।
एक जमाना था जब व्यक्ति थोड़ा-बहुत समझदार होते ही किसी न किसी स्वावलम्बी गतिविधि से जुड़ जाता था। इन गतिविधियों के संस्कार उसे परिवार, परिवेश और अपने क्षेत्र से प्राप्त होते थे। उस समय भिन्न-भिन्न समूह समाज की आवश्यकता के अनुरूप उत्पादों और सेवाओं को उपलब्ध करा दिया करते थे।
ऎसे में आत्मनिर्भरता की यह श्रृंखला हर कहीं सतत संतुलन के साथ निरन्तर प्रवाहमान रहा करती थी। उस जमाने में हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में आत्मनिर्भर हुआ करता था और उसका सामाजिक विकास तथा आर्थिक उत्थान में न्यूनाधिक योगदान निश्चय ही हुआ करता था।
इससे सामाजिक इकाइयों का उतना संतुलन तो बना रहता ही था कि हर व्यक्ति किसी न किसी पारंपरिक उद्यमिता से जुड़ा हुआ अपने भविष्य को सुरक्षित बनाए रखने की तमाम संभावनाओं के द्वारों को खुला रखता था।
आज स्थिति ठीक इससे उलट है। आज शिक्षा के नाम पर हम किताबी कीड़े होते जा रहे हैं। नकलचियों की फौज तैयार हो रही है, पैसा कमाने और नोट गिनने भर की मशीनें बनती जा रही हैं। नई पीढ़ी पढ़ाई के नाम पर गैर जरूरी बातों को रटने तथा पढ़ते ही रहने को विवश हैं, व्यावहारिक जीवन जीने की शिक्षा गौण होती जा रही है और हम हमारे परंपरागत हुनर को सहेज कर रख पाने में पूरी तरह विफल हो चुके हैं।
हमारी बेबसी इससे ज्यादा क्या होगी कि हम आज नौकरियों के पीछे भागने के फेर में जाने क्या कुछ नहीं कर गुजर रहे। हमारी किसी एक क्षेत्र में दक्षता रही नहीं। जहाँ मौका मिल जाता है उस बाड़े में घुस जाते हैं और कुण्डली मारकर बैठ जाते हैं।
हमारे पास कोई एक हुनर रहा नहीं, सारे हुनरों को आजमाने की दिशा में हमने तालीम को प्रयोगशाला बना डाला है जहाँ नित नये प्रयोग होने लगे हैं फिर भी समुदाय की बेकारी, गरीबी और बेरोजगारी बढ़ती ही जा रही है।
इन हालातों पर कहीं कोई अंकुश लग नहीं पा रहा है। एक ओर हमारे परंपरागत हुनर लुप्त हो गए हैं, वहीं दूसरी ओर पढ़ाई के अहंकार ने हमें इतना नाकारा बना दिया है कि हमें नौकरी के सिवा कहीं कुछ दिखता ही नहीं है और नौकरी मिलने तक हम दूसरा कोई काम-धंधा कर ही नहीं पा रहे हैं,बल्कि प्रतीक्षा में बरसों यों ही बेकार गुजार देते हैं।
इसके बावजूद कोई गारंटी नहीं है कि नौकरी मिल ही जाए। सामुदायिक हालात ये हैं कि बहुत बड़ी संख्या में युवा शक्ति का कोई रचनात्मक उपयोग नहीं हो पा रहा है। बिना किसी काम-काज के हमारी अपरिमित ऊर्जा यों ही ठहरी हुई पड़ी है।
इन हालातों का सीधा असर ये पड़ रहा है कि अरबों-खरबों की धनराशि मासिक और सालाना खर्च होते रहने के बावजूद हम वहीं के वहीं हैं। शिक्षा के प्रति सामुदायिक कल्याण की सोच का समावेश तभी सार्थक हो सकता है जब शिक्षा के विभिन्न सोपानों को समाज और समाज की प्रत्येक इकाई के आर्थिक आधारों और स्वावलंबन से जोड़ा जाए।
क्योंकि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता आर्थिक आधारों को मजबूत करने की है, ऎसा हो जाने पर सामाजिक विकास अपने आप लक्ष्यों को हासिल करने लगेगा। इसके लिए शिक्षा के आरंभिक चरण से सामुदायिक सहभागिता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
इस विषय पर चिंतन करते हुए प्रत्येक क्षेत्र की उपज, उत्पादन, आवश्यकता, विशिष्ट कला या हुनर तथा क्षेत्रीय मांग को देखते हुए हर इलाके के लिए विशिष्ट गतिविधियों का संचालन जरूरी है ताकि क्षेत्र विशेष की नई पीढ़ी वहाँ के परंपरागत हुनर और उत्पादों तथा सेवाओं की पारंपरिक पहचान को अक्षुण्ण रखते हुए आगे भी निरन्तर बढ़ाये रख सके और इनके माध्यम से क्षेत्रीय विकास को भी संबल प्राप्त हो सके।
शिक्षा में समुदाय की भागीदारी को तभी बढ़ाया जा सकता है जबकि शिक्षा के विभिन्न चरणों से जुड़ी पीढ़ियों में आत्मनिर्भरता जगे और समाज को कुछ प्राप्त हो। और कुछ नहीं तो इतना अवश्य होना चाहिए कि बेकारी व बेरोजगारी जैसी स्थितियाेंं को ग्राम्य आधारित जरूरतों के आधार पर आकलन किया जाकर समाप्त किया जाए और अधिक से अधिक लोगों को वर्तमान शिक्षा के साथ ही परंपरागत हुनर में दक्ष किया जाकर इस हुनर को अत्याधुनिक साँचे में ढाल कर वैश्विक स्वरूप प्रदान किया जाए।
ऎसा होने पर शिक्षा में समुदाय की भागीदारी भी बढ़ेगी और सामाजिक उत्थान के नवीन परिदृश्यों को आकार लेने का मौका मिलेगा। असली शिक्षा वही है जो समाज को नई दिशा दे और समस्याओं का खात्मा करते हुए बहुआयामी विकास प्रदान करे।

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