युगान्तरकारी कवि निराला का काव्य विकास
- डॉ. निर्मला शर्मा
निराला छायावादी चतुष्टय के श्रेष्ठ कवि हैं। छायावादी काव्य का स्वच्छन्दतावादी पक्ष अपने सबल एवं पुष्ट रूप में निराला के ही काव्य में व्यक्त हुआ है। अपने समस्त कृतिकाल में वे अपना नाम सार्थक करते हुए अविराम विद्रोह भावना के कवि रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में गतानुगतिकता उन्हें अमान्य हुई है, और एक प्रखर व्यक्तित्व की ओज भरी एवं दुर्दान्त अभिव्यक्ति से उन्होंने पाठकों तथा आलोचकों को अभिभूत किया है। अनुभूति की तीव्रता के कारण इनके आवेग प्रायः निरंकुशता की सीमा पर रहे हैं।
नाम के अनुरूप उनका निरालापन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि वे आधुनिक कवियों में अपनी शैलीगत आधुनिकता के कारण आधुनिकतम, किन्तु वेदान्त दर्शन तथा वीर पूजा संदर्भित धारणा की वजह से पुरातन स्वरूप दिखाते रहे हैं। एक तरफ वे अपनी मनः संवेदनाओं के कारण सर्वहारा वर्ग के हिमायती हैं और दूसरी ओर घोर अहंवादी।
निराला का कवि व्यक्तित्व वैशिष्ट्यपूर्ण है। काव्य विकास के प्रथम चरण में वे पूर्ण स्वच्छन्दतावादी, विद्रोही भूमिका के रूप में अंकित हैं। काव्य सृष्टि के प्रथमोन्मेष क्षण से लेकर जब तक मतवाला में उनकी रचनाएँ निकलती रहीं तब तक की अवधि को उनके काव्य का प्रथम चरण कहा जा सकता है। प्रथम अनामिका (1923)और परिमल (1930) में प्राप्त सारी रचनाएं निराला ने इसी काव्य चरण में प्रस्तुत की हैं। इस युग में निराला काव्य की सबसे बड़ी विशेषता उसका स्वच्छन्द स्वरूप है। इसी काल में उन्होंने काव्य की बाह्य श्रृंखला छन्दों के बंधनों को तोड़ने का उपक्रम किया था और मुक्त छन्द में काव्य रचनाएँ की थीं। यद्यपि कुछ रचनाएँ छन्दोबद्ध भी हैं। किन्तु उनमें भी निराला के विद्रोहों और मनस्वी व्यक्तित्व का उत्साह व्याप्त है। इसी समय जहाँ ‘बादल राग’ और ‘जागो फिर एक बार’ जैसी रचनाएँ क्रान्ति का आह्नान करती हैं, वहीं अतीत का एक स्वर्णिम स्वप्न उपस्थित करने वाली ‘यमुना के प्रति ’ जैसी कविता भी है। निराला मूलतः प्रगीत कवि हैं, प्रगीतों के क्षेत्र में उन्होंने अनेकानेक प्रयोग किये हैं। इनके आरंभिक गीतों में श्रृंगार की प्रमुखता जो दो भूमिकाओं पर निर्मित हुए हैं- पहली भूमिका प्राकृतिक सौन्दर्य निरूपणों की है और दूसरी मानवीय सौन्दर्य चित्रों की। निराला के गीतों में लघुता के साथ-साथ एकतानता या समग्रता का गुण विशेष मात्रा में मिलता है। उनके चित्रों में पुनरावृत्तियों कर अभाव है और गतिशील चित्रों का सुन्दर समाहार है। आकार की दृष्टि से निराला के प्रगीतों को हम लघु प्रतीक {जुही की कली, विधवा, भिक्षुक, संध्या सुन्दरी} एवं दीर्घ प्रगीत{यमुना के प्रति } दो भागों में बाँट सकते हैं। लघु प्रगीतों में निराला का काव्य सौन्दर्य सर्वाधिक प्रस्फुटित हुआ है। इसमें दृश्यांकन के साथ भावलेखन का तत्व समाहित है।
निराला के काव्य विकास का द्वितीय चरण 1920-28 से 35-37 तक माना जाता है। इस अवधि में उन्होंने अधिकांशतः गीतों की सृष्टि की। निराला के काव्य विकास का तृतीय चरण सन् 1935से 1942 तक माना जा सकता है। इस अवधि में निराला के कवि व्यक्तित्व की दो धाराएँ परिलक्षित होने लगती हैं। एक ओर तो वे औदात्य की भूमि पर जा कर महाकाव्योचित शैली का प्रयोग करते हुए दीर्घ आख्यानों की प्रवृत्ति प्रदर्शित करते हैं, और इसी युग में दूसरी ओर एक भिन्न प्रकार की हास्य और व्यंग्य की प्रवृत्ति का उन्मेष करते हैं। एक ओर गांभीर्य और दूसरी ओर हल्कापन- ये दोनों प्रवृत्तियाँ सामान्यतः परस्पर विरोधिनी हैं और इस द्वैत को देख कर शंका होती है कि निराला का व्यक्तित्व विघटन की ओर उन्मुख है। इस काल में ंिजन व्यंग्यात्मक प्रयोगों में निराला सामाजिक जीवन की बहुत सी विकृतियों पर आक्षेप करते हैं, उनमें भी उनका निजी असन्तोष झांकता रहता है।
निराला काव्य के इस तृतीय चरण में व्यंग्यात्मक और उदात्त कृतियों की द्विधात्मकता के बीच समरसता की एक तृतीय भूमिका भी है जिसे हम उनके दीर्घ प्रगीतों के रूप में देखते हैं। निराला के अधिकांश दीर्घ प्रगीत 1935-38 के बीच लिखे गये हैं। निराला के काव्य विकास का यह एक स्वतन्त्र प्रस्थान है।
इसी काल में रचित ‘राम की शक्ति पूजा ’एक लघु आख्यानक प्रगीत है। प्रेयसी और वनवेला नामक दीर्घ प्रगीतों में भाषा का मिश्रित रूप है। वनवेला श्रृंगार और व्यंग्य से समन्वित गीत है। सन् 1942 से 1950 तक निराला के काव्य का चतुर्थ चरण है। प्रयोगों की अतिशयता को ध्यान में रखते हुए इसे निराला का प्रयोग चरण भी कहा जा सकता है। ‘कुकुरमुत्ता’ आदि लम्बी कविताएँ ‘मास्को डायलाग’ आदि छोटी कविताएँ तथा ‘बेला’ की गज़लें इसी समय लिखी गई हैं।
गुलाब और कुकुरमुत्ता का परिहास करते हुए निराला यह व्यंजित करते हैं कि, न तो प्राचीन समाज व्यवस्था का प्रतीक गुलाब हमारा आदर्श है, और न कुकुरमुत्ता ही आधुनिक संस्कृति का प्रतीक बन सकता है। आशय यह है कि गुलाब का स्थान गुलाब ही ले सकता है, कुकुरमुत्ता नहीं। पुरानी संस्कृति का स्थान नयी संस्कृति ही ग्रहण कर सकती है, वह नहीं जो कुकुरमुत्ता की तरह उगाए नहीं उगता, अर्थात जिसका कोई पूर्वापर नहीं है। उनका प्रगतिवाद साँस्कृतिक प्रगति का आदर्श है।
बेला और नये पत्ते में निराला की प्रयोगात्मक रचनाएँ हैं। यह काव्य पुस्तक शुद्ध प्रयोग बन कर रह गयी है। ‘स्फटिक शिला’ में निराला ने यथार्थवादी भूमिका को अपनाया है। इसे एक प्रतिक्रियात्मक यथार्थ कह सकते हैं।
काव्य रूप की दृष्टि से कुकुरमुत्ता, स्फटिक शिला आदि व्यंग्यात्मक प्रगीत हैं। कुकुरमुत्ता में व्यंग्य और हास्य की प्रधानता है किन्तु ‘स्फटिक शिला’ एवं ‘खजोहरा’ आदि रचनाएँ विशुद्ध व्यंग्यात्मक प्रगीत हैें। ‘बेला’ और ‘नये पत्ते’ में भी दो पृथक-पृथक शैलियों - उर्दू और अंग्रेजी को हिन्दी में अपने ढंग से उपस्थित करने का प्रयास किया गया है।
सन् 1950 से 1960 में उनके सूर्यास्त तक निराला काव्य का पाँचवाँ और अंतिम चरण है। इन दिनों वे पुनः गीत लिखने लगे। इन गीतों में यद्यपि सामाजिक जीवन की विश्रृंखलता, अव्यवस्था और वैषम्य के संकेत भी मिलते हैं, परन्तु निराला की केन्द्रीय भावना किसी परम शक्ति का आश्रय चाहने की थी और उसी के प्रति समर्पित होकर उन्होंने उद्गार व्यक्त किये हैं। इनमें कुछ तो उनकी अपनी रुग्णता और वेदना से संबंधित गीत हैं, कुछ सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की विकृतियों कर उल्लेख करते हैं और कुछ विशुद्ध धार्मिक भावना से संबंधित हैं जिन्हें भक्तिकालीन कवियों के पदों की अनुवृत्ति कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रकृति संबंधी ऋतु गीतों की रचना भी उन्होंने की।
निराला की काव्य सृष्टि कला के प्रति उनके निःशेष समर्पण (टोटल डेडिकेशन) से निःसृत है। युग की विषमताओं को देख कर, अनैतिक तत्वों से खिन्न हो कर, उन्होंने मुँह नहीं मोड़ा, सांसारिक जीवन में अभेद्य दीवारों से टकरा कर उनकी मानसिक चेतना आहत हुई। यह निराला ही थे जो सुख का जीवन व्यतीत करने के लिए उत्पन्न नहीं हुए थे। आज के सामान्य कवियों से उनका व्यक्तित्व एकदम भिन्न था।
निराला के व्यक्तित्व में एक ऐसा तत्व है जो युग की समस्त जीवन भूमिका पर एक समन्वय स्थापित कर सका है। यह विक्षेप पर प्रतिभा की विजय है। पहले वे आशा के स्वर को ले कर चलते हैं, तो पीछे आक्रोश के स्वर को, और अंत में परम सत्ता के आह्नान के स्वर को।
निराला का काव्य वैशिष्ट्य अनेक विध और अनेक रूपात्मक है। संघर्ष और विद्रोह को आमंत्रित करने की शक्ति उनकी प्रतिभा की प्रथम विशेषता है। उनकी प्रतिभा में महाकाव्यात्मक गरिमा एवं औदात्य है।
निराला ने कुछ ऐसी भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं जो हिन्दी काव्य साहित्य में नये ‘मॉडेल’ के रूप में उपस्थित हो सकी हैं। उदाहरणार्थ ‘जागो फिर एक बार’ कविता में उन्होंने वीर रस एवं उन्मेषपूर्ण श्रृंगार का जो सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है वह जर्मन साहित्य के सुप्रसिद्ध ‘मिनेसागर लिट्रेचर’ की याद दिलाता है-
‘मुझको कविता का प्रपात दो,
अविरत मारण-मरण हाथ दो,
बँधे पैरों से उड़ते वर दो। ’
उनकी कृतियों के विस्तार एवं विषय के अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि निराला से हिन्दी की विभिन्न विधाओं ने उत्क्रांति, उत्कर्ष एवं विद्रोह का स्वर ग्रहण किया। विषादग्रस्त किन्तु कुण्ठा रहित जीवन व्यतीत करने के कारण उनकी रचनाओं में कृत्रिमता नहीं है। ये शुक्लता,सत्यान्वेषण, अनाविल दृष्टि बिन्दु एवं व्यापाकाशयता के कवि हैं। निराला की कविता कालान्तर विद्रोह की कविता है जिस पर कालिक प्रतिक्रियाओं का उपजना अस्वाभाविक नहीं। निराला का जो सर्वोत्तम है,वही खड़ी बोली हिन्दी कविता का भी सर्वोत्कृष्ट है।
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