नूतन दृष्टि और लोकमंगल के सर्जक महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
- अनिता महेचा
भारतीय संस्कृति और साहित्य के युगीन महापुरुषों में निराला का नाम अग्रगण्य है। निराला आज उदारवादी प्रकृति के साहित्य और अपने अनूठे नवाचारपरक व्यक्तित्व की वजह से साहित्य जगत से लेकर समाज और संस्कृति जगत के लिए आदर और श्रद्धा के केन्द्र हैं।
बंगाल की धरती से दुनिया के क्षितिजों को छूआ
भक्ति, योग, कर्म और ज्ञान में समन्वय स्थापित करने वाले महान कवि दार्षनिक सूर्यकांत त्रिपाठी का जन्म बंगाल के महिषादल राज्य में सन 1899 में बसंत पंचमी को हुआ। रविवार को जन्म लेने के कारण निराला का नाम सूर्यकुमार रखा गया। जिसे सन् 1917-18 में बदल कर उन्होंने सूर्यकांत कर दिया। उनके पिता रामसहाय त्रिपाठी इस राज्य में एक सौ सिपाहियांे के ऊपर जमादार थे। उनके पिता का स्वभाव अत्यंत कठोर था। अतः बालक निराला को कठोर अनुशासन में रहना पड़ा। उनका मूल स्थान उन्नाव जिला के गढ़ाकोला ग्राम में था। बंगाल में रहने के कारण बालक सूर्यकांत त्रिपाठी की षिक्षा बंगला भाषा से प्रारम्भ हुई । अंग्रेजी ,हिन्दी तथा संस्कृत का अध्ययन इन्हांेने घर पर ही किया। बंगाल से ही उन्हांेने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की ।
असामयिक विषादों ने रचा कालजयी साहित्य
ढाई साल की उम्र में निराला को मातृ-स्नेह से वंचित होना पड़ा। उन्हें महिषादल में पिता के साथ रहना पड़ा। मनोहरा देवी सिर्फ ग्यारह वर्ष की थी, जब निराला से उनका विवाह हुआ था। प्रायः वे मायके मे रहीं। निराला एन्टेंªस की परीक्षा में फैेल हुए तो पिता ने उन्हंे घर से अलग कर दिया। वे पत्नी को लेकर डलमऊ चले गये। मनोहरा देवी ने पहले पुत्र रामकृष्ण, फिर पुत्री सरोज को जन्म दिया।
जब ये 20 वर्ष के हुए इनकी माता का स्वर्गवास हो गया। संवत् 1880 में उनकी संगीतज्ञ पत्नी मनोहरा देवी ने भी इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर ली। इस वियोग की वेला में निराला द्वारा ’जूही की कली’ शीर्षक कविता की रचना हुई।
वेदांत और विवेकानंद का प्रभाव पड़ा
निराला का दःुख भरा हृदय भारतीय वेदांत से प्रभावित हो उठा। स्वामी विवेकानंद का प्रत्यक्ष प्रभाव उनके हृदय पर पड़ा। अपनी पुत्री सरोज के स्वर्गवास पर उन्हांेने ‘सरोज स्मृति’ नामक काव्य रचना की। संसार का दुःख देखकर उन्हंे तीव्र वैराग्य प्राप्त हुआ, किंतु भारतीय दर्षन से पूर्णतः प्रभावित होने के कारण उनकी विरागमय स्थिति में भी आषा का दीप प्रज्ज्वलित रहा। आचार्य महावीर प्रसाद ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को परखा तथा उनका खूब उत्साहवर्द्धन किया।
ओजस्वी छवि का दर्शन सर्वत्र
महाकवि निराला का बाह्य व्यक्तित्व कोमलता और कठोरता का समन्वित स्वरूप था। डा. गंगाप्रसाद पाण्डे ने उनके व्यक्तित्व के विषय में लिखा है- छह फीट से कुछ अधिक लंबा, स्थूलता की ओर झुकता हुआ सा भरा-पूरा शरीर, गेहूँआ रंग, आँखों में दर्षन की पिपासा से तने हुए लाल डोरे, लम्बे व चिकने सटकारे बाल निराला का रूप विन्यास है।
उनके भव्य, आकर्षक व्यक्तिव को देखकर भारत कोकिला सरोजनी नायडू तक को किसी ग्रीक दार्षनिक का भ्रम हुआ था। एक अमेरिकी महिला ने उन्हे ग्रीक पौराणिक देवता ’अपोलो ’ के समान विषाल व सुंदर कहा था।
प्रतिभाओं का महा भण्डार
एक ओर उनका जीवन अर्थाभावों से ग्रस्त था तो दूसरी ओर वे महान् ज्ञानी थे । उनके जीवन की विचित्रता जन्म-जात स्वच्छन्दता से उदित हुई थी। वे अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनके पास सूर की तन्मयता, तुलसी की समन्वयतात्मक सर्जना शक्ति, बिहारी का षब्द चमत्कार, विवेकानंद का अद्वैत दर्षन, केषव जैसा अगाध पाण्डित्य, कबीर जैसी निर्भीकता और रविन्द्र जैसी मनस्विता, बंकिम बाबू जैसी पैनी व्यंग्य दृष्टि थी।
विद्रोही साहित्यकार
इसी कारण उनका कवि हृदय भावुक, कोमल, करुणापूर्ण, संघर्षषील एवं सामर्थ्यवान था। अनेक आलोचकों का सामना करने के कारण वे विद्रोही साहित्यकार बन गए। लेकिन उनके साहित्य सृजन के दृष्टिकोण में थोड़ा भी अंतर नहीं आया। इस बारे में उन्होंने स्वयं लिखा- ‘‘साहित्य मेरे जीवन का उद्देष्य है, जीने का नहीं। यह सच है कि मैं जीता भी अपने साहित्य में हूँ, किंतु वह मेरे जीवन का साधन मात्र नहीं है। जो में नहीं लिखना चाहता था, वह चाहे भूखों मर जाऊँ, नहीं लिखूंगा। जो मैं लिखना चाहता हूँ, वह लाखों रूपयों के बदले में भी उसे न लिखने की बात न सोचूंगा।
मानवतावादी व्यक्तित्व के धनी
वे मानवतावादी कवि थे। उनका मानवतावादी दृष्टिकोण मानव समाज में व्याप्त विषमता एवं कुण्ठा तथा शोषित पीड़ित मानवता पर आधारित था। वे इस वसुन्धरा पर मानव मात्र के लिए स्वर्गिक अमृत की कामना रखते थे। वे किसी को पीड़ित नहीं देख सकते थे। किसी के पाँव में बिवाई फटी देखी उसे अपने जूते दे दिए। नई रजाई सर्दी में पेड़ के नीचे बैठी काँपती हुई बुढ़िया को ओढ़ा देते। अनेक छात्रों को पढ़ने के लिए फीस भी दिया करते थे। ’वह तोड़ती पत्थर’ कविता में उनका यही दृष्टिकोण उजागर हुआ है।
रूढ़ियों के खिलाफ आवाज बुलंद की
उन्होंने व्यवहारिक जीवन में किसी प्रकार की रूढियों को स्वीकार नहीं किया। बंधन में बन्धना उनके स्वभाव में नहीं था। उन्होंने अपनी बेटी का विवाह सामाजिक बंधनों को तोड़कर नए ढंग से किया था। हिन्दी के प्रष्न को लेकर वे महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू से भी भिड़ने में भी कभी नहीं चूके ।
निराला ने ’समन्वय’ नामक पत्र का सम्पादन किया। कुछ समय पश्चात वे कलकत्ता से प्रकाषित ’मतवाला’ के सम्पादक नियुक्त हुए। उनकी संपादन कला से पाठक जगत बेहद प्रभावित हुआ।
साहित्य जगत को अतुलनीय देन
निरालाजी सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न लेखक थे। उनका साहित्यिक क्षेत्र अत्यधिक विषाल और व्यापक था। अनामिका, परिमल, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नये पत्ते, अपरा, आराधना, अर्चना,गीत, गंूज व सांध्य की कला नामक कविता संग्रह का हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। तुलसीदास, राम की शक्ति पूजा - इन खण्ड काव्यों में तुलसीदास के जीवन को नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है तथा राम को शक्ति का उपासक बताया गया है। रेखाचित्र -बिल्लेसुर बकरिहा ,कुल्लीभाट। कहानी संग्रह लिली ,सखी सुकुल की बंटी तथा अफसरा, अलका, प्रभावती, निरूपमा, चोटी की पकड़,चमेली और काले कारनामे उनके प्रमुख उपन्यास हैं। चाबुक, प्रबन्ध परिचय, प्रबन्ध प्रतिमा उनके निबंध संग्रह हैं। ध्र्रुव ,भीष्म और राणाप्रताप की उन्होंने जीवनियाँ लिखी। र‘विन्द्र कविता कानन’ ग्रंथ में निराला ने रविन्द्रनाथ की अनेक कविताओं का भावार्थ देते हुए उनका आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। एक ओर जहाँ उन्होंने बंगला भाषा के कथा साहित्य का अनुवाद किया वहीं धार्मिक व आध्यात्मिक साहित्य का भी अनुवाद भी किया।
मनमौजी साहित्यकार ने तोड़ी कई वर्जनाएं
स्वच्छंद प्रकृति के निराला पर कोई अंकुष रख पाना मुष्किल था, अपनी इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप उन्होंने काव्य रूढ़ियों और छंद बंधों को निर्भयता से तोड़ दिया और अंत में युग प्रवर्तक कवि के रूप में विख्यात हुए। उनका ज्ञान विविध विषयक था। संगीत शास्त्र के ज्ञाता होने के साथ वे स्वयं संगीतज्ञ थे।
घुड़सवारी और राजनीति में उनकी विषेष रुचि थी। दानषील प्रकृति के मानवतावादी कवि निराला का निधन 15 अक्टूम्बर 1961 को इलाहाबाद में उनके निवास पर हुआ। उनके कृतित्व से स्पष्ट हो जाता है कि उनकी साहित्यक प्रतिभा अप्रतिम थी।
वर्तमान की काली साया ने तोड़ा उनके दिल को
यदि उनके जीवन में अर्थाभाव का चक्र न चलता, पारिवारिक जीवन में विषादमय माहौल न रहता, हिन्दी क्षेत्र में नवीनता के नाम पर उनका विरोध न होता और प्रकाषकों तथा सम्पादकों द्वारा उनका शोषण न किया जाता और जो सम्मान उनकी मृत्यु के बाद दिया गया वह उनके जीवन काल में दिया जाता तो निःसंन्देह निराला के साहित्य का भण्डार और भी विषाल तथा बहुमुखी होता। आज निराला का जो साहित्य विद्यमान है, वह हिन्दी जगत की अमूल्य धरोहर है।
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