यूपी में राष्ट्रपति शासन के आसार
अलीगढ़. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पांच चरण का मतदान हो चुका है। छठे चरण का प्रचार खत्म होने में केवल दो दिन बाकी हैं। संभावना समाजवादी पार्टी के सबसे बड़ा दल बनकर उभरने की है। लेकिन कांग्रेस द्वारा सपा को समर्थन न देने पर अड़ जाने पर अगली सरकार की तस्वीर साफ नहीं दिख रही।
ऐसे में सरकार बनना तभी संभव है जब या तो भाजपा और बसपा के इतने विधायक जीतें जो दोनों मिलकर सरकार बना लें। या फिर ये दोनों दल निर्दलीय और अन्य छोटे दलों का सहारा लें। या फिर राहुल गांधी का हृदय परिवर्तन हो जाए और वे सपा को बाहर से समर्थन दें या गठबंधन की सरकार बनाएं। अंतिम विकल्प राष्ट्रपति शासन और छह महीनों के अंदर दोबारा चुनाव कराने का है।
वैसे ही जैसे बिहार में रामविलास पासवान के अड़ जाने पर दोबारा चुनाव कराने पड़े थे। उनकी शर्त थी कि जो भी गठबंधन बने, उसमें मुख्यमंत्री वे ही बनेंगे। न लालू प्रसाद यादव इसके लिए तैयार थे और न ही नीतीश कुमार। दोबारा चुनाव में नीतीश-भाजपा के गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला। पासवान पासंग भी न रह गए। उनके संग लालू भी अप्रसांगिक हो गए।
सवाल अहम है। क्या कांग्रेस खुद को पासवान की जगह लाकर रखेगी? क्या वह समर्थन न देना और न लेना की रट नहीं छोड़ेगी? ऐसे में क्या उसके विधायक इतनी जल्द दोबारा चुनाव लडऩा पसंद करेंगे? कांग्रेस के ही क्यों किसी भी दल के विधायक इतनी मेहनत और पैसा दोबारा लगाने के अनिच्छुक होंगे। क्या राष्ट्रीय लोकदल कांग्रेस के इस फैसले में उसका साथ देगी? या अलग रुख अख्तियार करेगी? इन्हीं प्रश्नों के संभावित उत्तर सपा प्रमुख मुलायम सिंह की आशा का आधार है। आखिर राहुल सपा को समर्थन पर इतना सख्त रुख क्यों अपना रहे हैं? इसके मूल में 1989 और फिर 1993 में सपा को दिए समर्थन के बाद हुए कांग्रेस का हश्र है। कांग्रेस का वोट बैंक सपा और बसपा में चला गया। जब-जब कांग्रेस पुनर्जीवन की ओर कदम बढ़ाती है, पुराने कांग्रेसी घर वापसी की सोचते हैं। जैसे 1999 में लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेयी से कर्ण सिंह के मुकाबले में हुआ। जिस लखनऊ में कांग्रेस के कार्यकर्ता ही नहीं थे, वहीं कर्ण सिंह वाजपेयी से केवल एक लाख वोट से हारे। प्रचार के अंतिम क्षणों में चौक स्टेडियम में सोनिया की रैली में कई भाजपाई चेहरे दिखाई दिए थे। उनमें से एक शरद टंडन का कहना था - हम तो मजबूरी में लालजी टंडन के साथ थे। क्योंकि लखनऊ में कांग्रेस थी ही नहीं। अब कांग्रेस है तो हम फिर कांग्रेस के साथ आ गए हैं। प्रदेश में कांग्रेस को 1998 में मात्र 6 फीसदी वोट मिले थे और वह एक भी लोकसभा सीट जीतने में नाकामयाब रही थी। 2004 के चुनाव में उसे 12 फीसदी वोट और नौ सीटें मिलीं। वहीं 2009 के चुनाव में यह बढ़कर 18 फीसदी हो गया और उसे 22 सीटें मिलीं। जाहिर है, कांग्रेस वापसी की ओर है। राहुल की निगाहें 2012 के विधानसभा चुनाव से ज्यादा 2014 के लोकसभा चुनाव पर हैं। यही वजह है कि वे बार-बार कह रहे हैं कि इस चुनाव में कांग्रेस कितनी सीटें जीतती है उन्हें परवाह नहीं। वे कांग्रेस को एक बार फिर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहते हैं। 1980 और 1984 की तरह।
सरकार नहीं बनी तो विपक्ष में बैठने को तैयार : दिग्विजय
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि यदि उत्तरप्रदेश में पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो वह किसी अन्य पार्टी को समर्थन देने के बजाय विपक्ष में बैठना पसंद करेगी। उन्होंने सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के नेता जयंत चौधरी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की अटकलों को भी गलत करार दिया। उन्होंने कहा, 'रालोद राज्य की 403 में से सिर्फ 46 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इस आधार पर कोई कैसे मुख्यमंत्री बन सकता है। मुझे नहीं लगता कि जयंत सीएम बन सकते हैं।' काग्रेस नेता परवेज हाशमी की बुलंदशहर में की गई टिप्पणी पर यह उनकी प्रतिक्रिया थी।
राज्यपाल के कार्यकाल को लेकर कांग्रेस में संशय
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की संभावना जताई है। कांग्रेस राज्यपाल बीएल जोशी के कार्यकाल को लेकर संशय में है। उनका कार्यकाल अप्रैल में समाप्त हो रहा है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने की नौबत आती है तो कांग्रेस के समक्ष एक कठिन स्थिति पैदा हो सकती है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने स्वीकार किया कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में पार्टी के भीतर 'राजनीतिक राज्यपाल' की नियुक्ति का दबाव है। इससे एक नया विवाद उभरने की आशंका बनेगी। विवाद से बचने के लिए जोशी का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।
ऐसे में सरकार बनना तभी संभव है जब या तो भाजपा और बसपा के इतने विधायक जीतें जो दोनों मिलकर सरकार बना लें। या फिर ये दोनों दल निर्दलीय और अन्य छोटे दलों का सहारा लें। या फिर राहुल गांधी का हृदय परिवर्तन हो जाए और वे सपा को बाहर से समर्थन दें या गठबंधन की सरकार बनाएं। अंतिम विकल्प राष्ट्रपति शासन और छह महीनों के अंदर दोबारा चुनाव कराने का है।
वैसे ही जैसे बिहार में रामविलास पासवान के अड़ जाने पर दोबारा चुनाव कराने पड़े थे। उनकी शर्त थी कि जो भी गठबंधन बने, उसमें मुख्यमंत्री वे ही बनेंगे। न लालू प्रसाद यादव इसके लिए तैयार थे और न ही नीतीश कुमार। दोबारा चुनाव में नीतीश-भाजपा के गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला। पासवान पासंग भी न रह गए। उनके संग लालू भी अप्रसांगिक हो गए।
सवाल अहम है। क्या कांग्रेस खुद को पासवान की जगह लाकर रखेगी? क्या वह समर्थन न देना और न लेना की रट नहीं छोड़ेगी? ऐसे में क्या उसके विधायक इतनी जल्द दोबारा चुनाव लडऩा पसंद करेंगे? कांग्रेस के ही क्यों किसी भी दल के विधायक इतनी मेहनत और पैसा दोबारा लगाने के अनिच्छुक होंगे। क्या राष्ट्रीय लोकदल कांग्रेस के इस फैसले में उसका साथ देगी? या अलग रुख अख्तियार करेगी? इन्हीं प्रश्नों के संभावित उत्तर सपा प्रमुख मुलायम सिंह की आशा का आधार है। आखिर राहुल सपा को समर्थन पर इतना सख्त रुख क्यों अपना रहे हैं? इसके मूल में 1989 और फिर 1993 में सपा को दिए समर्थन के बाद हुए कांग्रेस का हश्र है। कांग्रेस का वोट बैंक सपा और बसपा में चला गया। जब-जब कांग्रेस पुनर्जीवन की ओर कदम बढ़ाती है, पुराने कांग्रेसी घर वापसी की सोचते हैं। जैसे 1999 में लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेयी से कर्ण सिंह के मुकाबले में हुआ। जिस लखनऊ में कांग्रेस के कार्यकर्ता ही नहीं थे, वहीं कर्ण सिंह वाजपेयी से केवल एक लाख वोट से हारे। प्रचार के अंतिम क्षणों में चौक स्टेडियम में सोनिया की रैली में कई भाजपाई चेहरे दिखाई दिए थे। उनमें से एक शरद टंडन का कहना था - हम तो मजबूरी में लालजी टंडन के साथ थे। क्योंकि लखनऊ में कांग्रेस थी ही नहीं। अब कांग्रेस है तो हम फिर कांग्रेस के साथ आ गए हैं। प्रदेश में कांग्रेस को 1998 में मात्र 6 फीसदी वोट मिले थे और वह एक भी लोकसभा सीट जीतने में नाकामयाब रही थी। 2004 के चुनाव में उसे 12 फीसदी वोट और नौ सीटें मिलीं। वहीं 2009 के चुनाव में यह बढ़कर 18 फीसदी हो गया और उसे 22 सीटें मिलीं। जाहिर है, कांग्रेस वापसी की ओर है। राहुल की निगाहें 2012 के विधानसभा चुनाव से ज्यादा 2014 के लोकसभा चुनाव पर हैं। यही वजह है कि वे बार-बार कह रहे हैं कि इस चुनाव में कांग्रेस कितनी सीटें जीतती है उन्हें परवाह नहीं। वे कांग्रेस को एक बार फिर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहते हैं। 1980 और 1984 की तरह।
सरकार नहीं बनी तो विपक्ष में बैठने को तैयार : दिग्विजय
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि यदि उत्तरप्रदेश में पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो वह किसी अन्य पार्टी को समर्थन देने के बजाय विपक्ष में बैठना पसंद करेगी। उन्होंने सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के नेता जयंत चौधरी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की अटकलों को भी गलत करार दिया। उन्होंने कहा, 'रालोद राज्य की 403 में से सिर्फ 46 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इस आधार पर कोई कैसे मुख्यमंत्री बन सकता है। मुझे नहीं लगता कि जयंत सीएम बन सकते हैं।' काग्रेस नेता परवेज हाशमी की बुलंदशहर में की गई टिप्पणी पर यह उनकी प्रतिक्रिया थी।
राज्यपाल के कार्यकाल को लेकर कांग्रेस में संशय
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की संभावना जताई है। कांग्रेस राज्यपाल बीएल जोशी के कार्यकाल को लेकर संशय में है। उनका कार्यकाल अप्रैल में समाप्त हो रहा है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने की नौबत आती है तो कांग्रेस के समक्ष एक कठिन स्थिति पैदा हो सकती है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने स्वीकार किया कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में पार्टी के भीतर 'राजनीतिक राज्यपाल' की नियुक्ति का दबाव है। इससे एक नया विवाद उभरने की आशंका बनेगी। विवाद से बचने के लिए जोशी का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।
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