व्यवहार शुद्धि धर्म का मूल हैं- श्री प्रिय रंजना
बाड़मेर
स्थानीय जिन कान्ति सागर सूरी आराधना भवन में चार्तुमासिक विराजित साध्वी वर्या प्रखर व्याख्यात्री, मधु भाशी श्री प्रिय रंजना श्री जी ने आज धर्म सभा को सम्बोन्धित करते हुए कहा कि -व्यवहार षुद्धि धर्म का मूल हैं एवं षुद्ध व्यवहार से ही कार्य षुद्धि होती हैं। नींव, मूल पाया जितना मजबूत होगा, उतनी ही मजबूत इमारत होगी। यदि नीवं कमजोर हैं तो इमारत को सदा गिरने का खतरा बना रहता हैं। अतः हमें व्यवहार को षुद्ध रखना होगा।
आपको हमेषा धर्म मय जीवन ही गुजारने वाला होता हैं। यही कारण हैं कि हमारे कार्या वर्त की आर्य प्रजा में न्याय निति विष्वास यंत्र तंत्र देखने को मिल जाते थे। लोगों का दृढ़ मानना था कि वस्त्र भले गन्दे हो तो चलेगा किन्तु व्यवहार षुद्ध होना चाहिए और इसीलिए यहाॅं की प्रजा धन के बजाय व्यवहार की षुद्धि पर ज्यादा भार देती थी। धन तो आज हैं, कल नश्ट भी हो सकता हैं एवं नश्ट हुआ धन पुनः प्राप्त किया जा सकता हैं, किन्तु जीवन की चादर पर यदि एक बार भी कलंक लग गया तो वह फिर अरबो-खरबो रूपये कमाने के बाद भी साफ होने वाला नही हैं इसलिए प्राचीन समय में व्यक्ति हमेषा व्यवहार षुद्धि के लिए सचेत रहता था। लज्जावान आत्मा अल्प अकार्य का तुरन्त त्याग कर देता हैं। षोभीत व्यवहार का अचरण करता हैं। सत्कार्य को एक बार षिकार कर लेने के बाद कभी भी छोड़ता नहीं हैं।
लज्जावान आत्मा की बात ही न्यारी हैं। अनादीकाल के पास संस्कारों के वासिन ही आत्मा होती हैं, परन्तु खान दानी, वदील, मर्यादा, पाप मय, धर्म संस्कार आदि गुण ऐसे होते हैं जिन गुणो से उसे पाप आचारों से तो बचाता हैं, परन्तु समय जाने के बाद पाप विचारों निवृत बना देते हैं।
लज्जालु आत्मा लज्जा के कारण लोका विरूद्ध पाप आचार से लगभग दूर होते हैं। परन्तु पूर्णभव के मलिन अभ्यास के कारण मन में पाप विचार आ भी जावें तो उसे धर्म प्रवृतियों के सेवन के द्वारा दूर कर देता हैं।
साध्वी श्री प्रिय षुभाजनां श्री ने कहा- निर्लज्ज आत्मा पाप विचार और पाप आचार में डूबा रहता हैं। धर्म आचार में प्रायः करते प्रवृत नहीं होता हैं। कराचित प्रवृत नहीं होता हैं। कराचित प्रवृत हो भी जायें तो उसे अध बीच में छोड़ देना पड़ता हैं। छोड़ने पर उसे भय संकोच भी नहीं होता हैं।
संयम जीवन में पाप होना बहुत मुष्किल हैं जबकि गृहस्थ जीवन में धर्म करना मुष्किल हैं। इसके अनेक कारणों में से एक कारण यह हैं कि संयम जीवन में पाप निमित लगभग नहीं होते हैं। और सदनिमितों का पार नहीं होता हैं। जबकि गृहस्थ जीवन में सद निमितों को लाना पड़ता हैं और पाप निमितों की कोई कमी नहीं हैं।
चीकनी भूमि पर चलते समय दो बातों का ध्यान रखना होता हैं। प्रथम नम्बर में उसके हाथ में लकड़ी जैसा मजबूत अलम्बन चाहिए और दूसरे नम्बर में अपनी जागृति चाहिये। उपकारी की लज्जा एक प्रकार से मजबूत आलम्बन हैं अंतर में पाप प्रवृति का निष्चय होने पर उपकारी, बदील वर्ग की षरम से रूकना ही पाप प्रवृति से बच सकता हैं। पतन से बचने के लिए लज्जा गुण राम बाण औशधी समान हैं।
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