क्षुद्र व्यक्ति का हृदय भी क्षुद्र होता है- साध्वी प्रियरंजनाश्री
बाड़मेर। 
थार नगरी बाड़मेर में चातुर्मासिक धर्म आराधना के दौरान स्थानीय श्री जिनकांतिसागरसूरि आराधना भवन में प्रखर व्याख्यात्री साध्वीवर्या श्री प्रियरंजनाश्रीजी म.सा. ने चातुर्मास के तेइसवें दिन अपने प्रवचन में कहा कि जब तक राग के चश्मे से जगत को देखोगे तब तक जगत का सच्चा दर्शन नहीं होगा और यही बात द्वेष पर भी लागू होती है। दुनिया का यदि सच्चा दर्शन करना हो तो समभाव का आविर्भाव करना होगा और समभाव का आविर्भाव होता है सामायिक से। सामायिक राग द्वेष की तुला को समान करती है। परिणामतः व्यक्ति संसार में रहकर भी कर्मों के भार से भारी नहीं होता है।
भगवान महावीर ने कहा है कि सच्चा आत्मज्ञानी साधक वही है जो किसी भी स्थिति में न तो शोक करता है न हर्ष, और इसी स्थिति तक पहुंचने हेतु श्रावकों के लिए सामायिक करने का उपदेश दिया गया है। सामायिक व्यक्ति को समभाव की साधना में अग्रसर करती है।
संसार और मोक्ष की सुंदर व्याख्या करते हुए साध्वीश्री ने कहा कि जिसके मन में क्लेश है, राग, द्वेष है बस वही संसार है और जिसके मन से क्लेश निकल गया बस वही मोक्ष है। यानि राग, द्वेष के परिणाम को सम कर दे, वही सामायिक है।
यह संसार ही राग, द्वेष पर आधारित है। राग जड़ है एवं द्वेष उसकी शाखा है। किन्तु आज राग को अच्छा माना जा रहा है और द्वेष को खराब मानकर तिरस्कार किया जा रहा है। जबकि सबसे खतरनाक यदि है तो वह राग ही है।
द्वेष को दावानल की उपमा दी है। जबकि राग को बडवानल कहा है। दावानल से भयंकर होता है बडवानल। क्योंकि दावानल को पानी से बुझाया जा सकता है किन्तु बडवानल तो स्वयं ही समुद्र की अथाह जलराशि में उत्पन्न होता है। अतः वह भयंकर है। सभी संक्लेशों का कारण सभी दुःखों का जन्मदाता राग ही है, और यही कारण है कि हमारे भगवान को वीतराग कहा जाता है, वीतद्वेष नहीं क्योंकि राग के चले जाने पर द्वेष तो चला ही जाता है। द्वेष को भगाने की आवश्यकता नहीं है, वह तो राग के रवाना होते ही अपना मार्ग पकड़ लेगा। मूल का, जड़ का नाश होने पर शाखाऐं कदापि नहीं रहती है। राग गया यानि जड़ मूल गया।
एक तरफ राग रूपी समुद्र है, दूसरी तरफ द्वेष रूपी दावानल है और संसारी व्यक्ति उसमें फंसा हुआ है। किन्तु राग द्वेष के परिणामों को कम करने वाली सामायिक है।
उन्होनें कहा कि क्षुद्र व्यक्ति का हृदय भी क्षुद्र होता है। क्षुद्र वचनों के द्वारा महाभारत के युद्ध के बीजों का वपन हो गया। मंथरा के शब्द कैकेयी से कहने पर रामायण का सृजन हो गया।
शब्द के माध्यम से भक्त भगवान के साथ जुड़ता है, शिष्य गुरू के साथ जुड़ता है, विद्यार्थी शिक्षक के साथ जुड़ता है, व्यक्ति समाज के साथ जुड़ता है, बेटा पिता के साथ जुड़ता है, इन्हीं शब्दों के माध्यम से वर्षों का सम्बन्ध पिता-पुत्र का, पति-पत्नी का, परिवार-परिवार का सम्बन्ध शब्द रूपी चिंगारी से टूट जाता है। यह कितनी दुःखद हकीकत है।
महत्वाकांक्षा का भूत जब दिमाग पर सवार हो जाता है तो व्यक्ति एकदम क्षुद्र प्रवृत्ति करने लग जाता है। संसार में रहना यानि के सहना। जिसे सहना नहीं आया उसका संसार असफल हो जाता है।
हमें किसी का भी अवर्णवाद नहीं करना है। अवर्णवाद से हमारा सम्यकत्व चला जाता है। आज से आराधना में सामूहिक अदम की आराधना करवाई जायेगी। श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ के तेले आज से प्रारम्भ करेंगे। 

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