अनूठे रंगों और विलक्षण परम्पराओं भरी है वनाँचल की होली

- डॉ. दीपक आचार्य
राजस्थान के दक्षिणांचल में मालवा और गुजरात की सरहद को छूते वनवासी बहुल वागड़ अंचल अर्थात् बांसवाड़ा और डूंगरपुर जिलों की होली देश भर में अपनी तरह की विलक्षण और अनूठी परम्पराओं से परिपूर्ण है। होली की सदियों पुरानी लोकानुरंजक परम्पराएं इन आदिवासी इलाकोंं में आज भी मौज-मस्ती और उल्लास की कई-कई सरिताएं बहाती हैं।
यहां की होली में लोक सांस्कृतिक परम्पराओं के रंगों और मदमस्ती भरे कई-कई रसों का समावेश है जिनका दिग्दर्शन मनोहारी होने के साथ ही आत्मीय उल्लास का सुकून देने वाला है। ये परंपराएं यहां अक्षुण्ण बनी हुई हैं।

मशहूर है भीलूड़ा की पत्थरमार होली
राजस्थान भर में अपनी तरह की अनूठी एवं दूर-दूर तक मशहूर पत्थरमार होली आदिवासी बहुल डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गांव में खेली जाती है जिसमें लोग रंग-गुलाल और अबीर की बजाय एक-दूसरे पर पत्थरों की जमकर बारिश कर होली मनाते हैं। इस गांव की युगों पुरानी परम्परा के अनुसार धुलेड़ी पर्व के दिन शाम को इसका रोमांचक नज़ारा रह-रह कर साहस और शौर्य का दिग्दर्शन कराता है।
आस-पास के कई गांवों से सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण भीलूड़ा गांव में जमा होते हैं और शाम ढलने से पूर्व पत्थरों से होली खेलने के इच्छुक जन गांव में रघुनाथ मन्दिर के सम्मुख मैदान में जमा होकर पत्थरमार होली की शुरूआत करते हैं। पहले पहल आमने-सामने पत्थर उछालने से शुरू होने वाला यह अनूठा कार्यक्रम वीर रस की धुन पर केन्दि्रत ढोल-नगाड़ों के नादों पर परवान चढ़ता जाता है और इसके साथ ही पत्थरों की बारिश तेज होती है। बाद में पत्थरों की मार से छितराए समूहों पर पत्थर फेंकने की पारंपरिक गोफण (रस्सी से बनी पारंपरिक गुलैल) का सहारा भी लिया जाता है।
लोग अपने हाथों में पत्थर लेकर टूट पड़ते हैं एक-दूसरे समूह पर। जो पत्थर दिखा उसे हाथ में लेकर पूरे जोर से दे मारते हैं दूसरे समूह के लोगों पर। दूर-दूर तक पत्थरों से होली का नज़ारा फैला होता है। न कहीं कोई वर्जना और न किसी की रोक-टोक। जिसके जी में आए वह इस होली में शामिल होकर करने लगता है पत्थरों से हमला।
एक-दूसरे पर पत्थरों से घातक हमला करने वाली इस अनूठी होली में हर साल कई लोग घायल होकर अस्पताल पहुंचते रहे हैं। कइयों को गंभीर चोटें आती हैं ।‘पत्थरों की राड़’ के नाम से मशहूर इस आयोजन में पत्थरों की बारिश में आमने-सामने इस कदर पत्थर चलते हैं कि हाथ में ढाल होने व बचाव के उपायों को अपनाने के बावजूद लोग घायल व लहूलुहान होने से बच नहीं पाते और उनके जिस्म से खून रिसने लगता है।

लोक मान्यता के अनुसार भीलूड़ा में हर साल धुलेड़ी पर पत्थरों की होली अनिवार्य है और इस दिन भीलूड़ा की जमीन पर खून की बून्दें गिरना शगुन माना जाता है। ऎसा नहीं होने पर गांव में अनिष्ट की आशंका रहती है।

डूंगरपुर जिला मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर सागवाड़ा तहसील के भीलूड़ा गांव में पारंपरिक पत्थर मार होली का अद्भुत साहसिक नज़ारा देखने हजारों लोग उमड़ते हैं लेकिन पत्थरों की मार से बचने इन लोगों को काफी दूर से ही यह सब कुछ देखना होता है। दूर-दूर से भी लोग इस साहसिक होली को देखने आते हैें। धुलेड़ी की शाम का माहौल इस गांव में किसी युद्धोन्माद से कम नहीं होता।

इस आयोजन के साथ ही भारी जन समूह के उल्लासपूर्ण माहौल के बीच ढोल-नगाड़ों, कौण्डियों आदि लोक वाद्यों की धुनों पर जमकर गैर नृत्य खेला जाता है। इस दौरान् वनांचल में उल्लासमयी लोक संस्कृति की मनोहारी परम्पराओें को दिग्दर्शन सहज ही होता है।

सदियों से चली आ रही पत्थरमार होली को लेकर प्रशासन एवं पुलिस के अधिकारी भारी पुलिस बल के साथ भीलूड़ा में तैनात रहते हैं मगर लोक परंपराओं के आगे सब कुछ चुपचाप देखने की विवशता होती है। कई बार पत्थरों की इस खतरनाक होली को बन्द कराने के प्रयास हुए मगर परंपराओं और लोक भावनाओं के आगे सब कुछ निरर्थक रहा।

कण्डे फेंक होली

होली पर पूरे वनांचल में साहस और पराक्रम के प्रतीक के रूप में कई तरह के आयोजन होते हैं जो ग्राम्य शक्ति के प्रदर्शन के साथ ही लोकानुरंजन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। अंचल के कई गांवों में कण्डों, गदेलियों(गेाबर से बनी नन्हीं आकृतियों), मिट्टी के ढेलों की मार भरी होली खेली जाती है।

आग से होली

होली पर साहस और शौर्य की परीक्षा को लेकर प्राचीनकाल से चली आ रही परम्पराओं में सागवाड़ा से कुछ दूर चीतरी में जलती हुई लकड़ियों से खेली जाने वाली होली प्रसिद्ध है। इस दौरान होली में जल रही लकड़ियों को निकाल कर एक-दूसरे पर फेंक कर अग्नि होली का रोमांचक प्रदर्शन होता है। इसे स्थानीय भाषा में ‘उम्बाड़ियों की होली’कहा जाता है। चीतरी गांव में होली के दूसरे दिन धुलेड़ी को मुँह अंधेरे पाटीदार चौराहे पर होली की अग्नि से जलायी गई लकड़ियां एक-दूसरे पर फेंक कर होली खेलने की परम्परा आज भी बरकरार है। इसकी शुरूआत पाटीदार समाज के युवाओं के दल करते हैं। ढोल-कौण्डियों की आवाजों के बीच अपार भीड़ की मौजूदगी में शुरू होने वाले इस कार्यक्रम में ज्यों-ज्यों उत्तेजना बढ़ती है, अन्य समाजों के साहसी युवा भी इसमें जुटते जाते हैं।

काफी समय चलने वाले इस संषर्घ के दौर के बाद बीच में रस्सी से बंधे नारियल को जो दल कब्जे मे लेता है वह विजेता माना जाता है। इसके साथ ही इसका समापन होता है। विजयोन्माद भरे युवाओं द्वारा बाद में इस नारियल का प्रसाद बांटा जाता है।

उम्बाड़ियों (जलती लकड़ियां) से होली खेलने के बाद यह पूरा का पूरा समूह वहां से चलकर बड़गी गांव के होली चौक आता है जहाँ कण्डों की राड़ होती है। ग्रामीणों के विभिन्न समूहों द्वारा एक-दूसरे पर कण्डे फेंक कर होली खेलने का दौर खूब जमता है। इसी प्रकार कण्डों की राड़ चीतरी के लक्ष्मीनारायण चौक पर भी खेली जाती है।

धुलेड़ी पर बड़े सवेरे शुभ मुहूर्त में ढोल के नादों पर लोग थिरकने लगते हैं और तब होता है आगाज उम्बाड़ियों(जलती लकड़ियों की) से होली खेलने का। ग्रामीणों के समूह के समूह ख़ास उल्लास भरी आवाजों के साथ घरों से निकल पडत़े हैं और मेले सा माहौल परवान पर होता है। इसके साथ ही परम्परागत गैर नृत्य की धूम शुरू हो जाती है।

जलती लकड़ियों से होली खेलने से पहले मैदान पर जमा समूहों में से दो आदमी बीच में आते हैं और रस्सी से बीस-फीट दूरी तय कर डण्डे गाड़कर इस पर रस्सी बाँधी जाती है। इस रस्सी के बीचों-बीच नारियल लटका दिया जाता है। पन्द्रह से बीस सदस्यों वाले दल दोनों तरफ जमा होते हैं। इन दलों के पीछे कण्डों के ढेर भी पड़े रहते हैं जिनका उपयोग होता है। ढोल के तेज होते नादों के साथ ये दल जलती लकड़ी उठाकर लक्ष्य बनाकर एक-दूसरे पर फेंकते हैं और इर्द-गिर्द जमा हजारों ग्रामीण इस रोमांच भरे खेल का मजा लूटते हैं।

प्रतिस्पर्धी लोग चमड़े की ढाल एवं लकड़ियां चलाकर इनसे बचाव का यत्न करते हैं। इस दौरान कई लोग घायल भी होते हैं। जब उत्तेजना का अतिरेक हो उठता है तक ढोल का बजना बंद कर दिया जाता है और बीच-बचाव करने वाले ताकतवर लोग लट्ठ के जोर पर दोनों समूहों को बिखरा कर इस खेल की समाप्ति करते हैं।

धधकते अंगारों पर दौड़ की होड़

कोकापुर की होली के अन्दाज ही निराले हैं जहाँ लोग होली के धधकते अंगारों पर चलते हैं। डूंगरपुर जिले के इस गांव में होली के अंगारों पर दौड़ का रोमांचक नज़ारा देखने को मिलता है जहां धुलेड़ी के दिन प्रभात में पवित्र स्नान करने के बाद लोग होली दहन स्थल पहुंचकर अंगारों पर नंगे पाँव चलते हैं। मान्यता है कि इससे मनचाही मुराद पूरी होती है। ये लोग अपनी मन्नतें पूरी होने पर अग्नि पर नंगे पांव चलते हैं। हैरत की बात यह है कि इन पर चलने वालों के पांवों को आग जला नहीं पाती।

फागणिया गान और गैर नृत्यों की धूम

समूचे वनवासी अंचल डूंगरपुर और बांसवाड़ा में फागुनी रंगों का माहौल होली के दिनों में परवान चढ़ता है। इन दिनों तमाम गांवों और शहरों में गैर की टोलियां ढोल-नगाड़ों, कौण्डियों और थालियों की आवाजों पर फागणिया गायन की परंपरा यौवन पर होती है वहीं गैर नृत्यों की धूम मचती है। महूए की मादक गंध भी जहां-तहां हवाओं में घुलने लगती है।

प्रतिध्वनित होती हैं लोक वाद्यों की धुनें

आदिवासी बहुल दोनों जिलों में होली के सप्ताह भर पहले से ही गांवों में देर रात तक चौराहों पर विभिन्न समुदायों और वर्गों के लोगों द्वारा उल्लास का इज़हार करने कई-कई ढोल, कौण्डों और अन्य लोक वाद्यों की तान दूर-दूर तक फैलकर पहाड़ों से प्रतिध्वनित होने लगी है। वागड़ के कई गांवों मेें होली के बाद तक इन लोक वाद्यों का सामूहिक वादन जारी रहता है।

सामाजिक लोकोत्सव ‘ढूँढ़’ की धूम

पूरे वनांचल में होली के दिनों शिशुओं की पहली होली के उपलक्ष में सामाजिक रस्म भरे लोकोत्सव ‘ढूण्ढ’ का माहौल यौवन पर होता है। होली के दो-चार दिन पहले से शुरू हो जाने वाला यह लोकोत्सव उन हजारों परिवारों में शादी-ब्याह जैसा ही मांगलिक आयोजन बना होता है जिनमें संतान की पहली होली है। इसके उपलक्ष में इन परिवारों में ढूंढ के अनुष्ठान होते हैं। इसके अन्तर्गत शिशु के विभिन्न अनिष्टों के निवारण की कामना से पूजा-अर्चना व लोक रस्मों को पूरा करने के बाद इन शिशुओं को घर-परिवार के लोग तथा नाते-रिश्तेदार नवीन वस्त्र उपहार स्वरूप भेंट करते हैं। इन वस्त्रों को स्थानीय भाषा में‘फईयरयू’ या ‘ढूण्ढिया’ कहते हैं। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक होली पर ढूण्ढा नामक राक्षसी अपने प्रभाव से शिशुओं का रक्त शोषण कर उन्हें बीमार कर देती है। होली के दिनों में बच्चों को इस राक्षसी के प्रकोप से मुक्त रखने के लिए वागड़ अंचल भर मेें लोग नन्हें बच्चों खासकर इस वर्ष जन्मे शिशुओं को होलिका दहन स्थलों पर ले जाते हैं।

जिन बच्चों की ढूंढ़ पूर्व के वर्षो मेें हो चुकी होती है उन्हें भी होलिका की परिक्रमा करवायी जाती है। इसके अलावा बड़े-बूढ़े लोग भी जलती होली की विषम संख्या में परिक्रमा करते हैं।

लोगों का पुराने समय से विश्वास चला आ रहा है कि होलिकाग्नि से तपे बालकों की व्याधियां एवं अनिष्ट समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा होलिका दहन स्थलों पर सामाजिक लोक रस्म ढूण्ढ के सामूहिक आयोजनों की धूम भी रहती है। 

होली से पहले परिवार में जन्म लेने वाले पहले बालक की ढूण्ढ को विवाह के बराबर की मान्यता है। आकर्षक परिधानों एवं आभूषणों में सुसज्जित बालक को घर-परिवार के लोग शुभ मुहूर्त में परिजनों के समूह के साथ गाजे-बाजे से होलिका दहन स्थल पर ले जाते हैं। ये समूह जलती होली के इर्द-गिर्द घेरा लगाकर बैठे और पण्डित के द्वारा मंत्रोच्चार से होलिका पूजन-अर्चन तथा बाल रक्षा मंत्रों का अनुष्ठान कराते हैं।

नवजात शिशु के दीर्घायु एवं आरोग्य की कामना से ‘वारिये उतारने’ की खास रस्म पूरी की जाती है। इसमें लकड़ी के वारिये (डण्डियों) खाली मटकी में बजाते रहकर शिशु को इसकी आवाज सुनाई जाती है। इसके उपरान्त माता या पिता बच्चे को गोद में लेकर होलिकाग्नि की परिक्रमा करते हैं।

होलिका दहन स्थलों पर जमा समूहों द्वारा सामूहिक ढूण्ढ की रस्म पूरी होने के बाद बच्चों को लेकर होलिकाग्नि की परिक्रमा की जाती है। बड़े-बुजुर्ग भी आगामी वर्ष में आरोग्य एवं अनिष्ट शमन की कामना से जलती होली की विषम संख्या में परिक्रमा करते हैं। घर-परिवार में सामूहिक भोज, बतौर उपहार वस्त्र भेंट करने आदि के आयोजन इन दिनों होली के दिन या आस-पास जारी रहते हैं। लोग जलती होली में नारियल डाल कर इसे वापस निकालते व प्रसाद बांटते हैं। समूचे वागड़ अंचल में होली के दिनों में इस पुरातन लोक रस्म की रंगत दिखाई देती है।

हर्बल रंग

रसायनिक एवं हानिकारक रंगों के प्रचलन के दौर में आज भी ग्राम्यांचलों में कई लोग ऎसे हैं जो वानस्पतिक रंगों का प्रयोग करते हैें। ये लोग टेसू और अन्य वृक्षों के पुष्पों से बने रंगों का प्रयोग करते हैं।

कामदेव को रिझाने की अनूठी परम्परा - कामण गान

श्रृंगार, सौन्दर्य और प्रेम की अभिव्यक्ति का पर्व होली वनवासी अंचल में अनेक अनूठी परंपराओं का दिग्दर्शन कराता है। इन्हीं में ‘कामण गान’ की परंपरा युगों से कामदेव को रिझाने का लोक अनुष्ठान है।

तलवाड़ा क्षेत्र में होली के बाद पांच दिन तक निर्धारित अलग-अलग क्षेत्राों में ढोल-नगाड़ों के नाद पर फागुनी गीतों की बरसात करते हुए शाम को दो-तीन घण्टे जमकर गैर नृत्य होता है। नारियल वधेरकर इसकी चटखों का प्रसाद वितरित होता है। इसके बाद हजार से ज्यादा महिला और पुरुष घूमर की शक्ल में जमा होते हैं। रात आठ बजे ‘कामण गान’ शुरू होता है।

घण्टा भर चलने वाले इस कार्यक्रम में हास्य, श्रृंगार और रति के संवादों भरी कामदेव की पद्यमय कथा का वाचन होता है। तलवाड़ा के व्यास ब्राह्मण पिछले डेढ़ सौ वर्ष से कामण गान करते आ रहे हैं। बच्चों से लेकर बूढ़े तक एकटक होकर इसे सुनते और श्रृंगार एवं हास्य सागर में डुबकी लगाते रहते हैं। इसमें सभी समाजों के लोग उल्लास के साथ हिस्सा लेते हैं।

कामण गान का अनूठा आयोजन परम्परागत रस्मों के साथ शुरू होता है। किसी कथा वाचक की तरह कामण गान करने वाले वाचकों को साफे बंधवाए जाते हैं और तिलक-गुलाल के बाद पुष्पहार पहनाकर स्वागत होता है। तलवाड़ा गांव में होली के दूसरे दिन एकम् से पंचमी तक रोजाना शाम इन्हीं अनूठे रंगों और रसों का दरिया उमड़ता है।

पहले दिन प्रतिपदा को गांव के मुख्य चौराहे पर यह कार्यक्रम रंग जमाता है। दूज को सेामपुरा चौक, तीज को वाणियों का चौक जैन मन्दिर, चतुर्थी को छोटी औदिच्य टोलकिया चौक तथा रंग पंचमी को बड़ा चौक में होने वाला यह मदभरा आयोजन ग्राम्यांचलों में लोक सौहार्द की पुरातन परंपराओं को अच्छी तरह अभिव्यक्त करता है जिनमें सभी सम्प्रदायों एवं समाजों के लोग पूरे उत्साह के साथ हिस्सा लेते हैं। गांव में गणेश चौक पर गढ़ भागने का साहसिक आयेाजन भी मजेदार होता है।

श्रृंगार वृष्टि करता है लाल केशा

इसी प्रकार जिले में विभिन्न स्थानों पर पुरातन श्रृंगार काव्य ‘लाल केशा’ भी कई युगों से चला आ रहा है। इस पारंपरिक श्रृ्रंगारपरक काव्य को जो भी सुनता है वह रति और कामदेव की आराधना के स्वरों में खो जाता है। खासकर धुलेड़ी पर युवाओं के समूह‘लाल केशा’ गान कर जमकर आनन्द लेते हैे। इस दिन मौज-मस्ती के तमाम उपायों का प्रयोग और सामूहिक गोठ के आयोजन यहां की खासियत रहे हैं।

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