सामाजिक सौहार्द से उल्लास का सफर

- डॉ. दीपक आचार्य
आनंद पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना मनुष्य का मौलिक स्वभाव है और इसके लिए वह व्यक्तिगत प्रयासों से लेकर सामूहिक आयोजनों तक की उत्सुकता के साथ तलाश करता रहता है।
आए दिन होने वाली पारिवारिक-सामाजिक रस्मों के साथ ही मेलों-पर्वों व उत्सवों, हाट बाजारों से लेकर वर्ष भर होने वाली विभिन्न परिवेशीय गतिविधियां इस आनंद की प्राप्ति का स्रोत ही होती हैं।
मध्यप्रदेश और गुजरात की सरहदोंं का स्पर्श करता हुआ राजस्थान का दक्षिणांचल इस दृष्टि से दुनिया भर में अपनी अलग पहचान रखता है। यहां हर माह कहीं न कहीं मेला भरता है और हर सप्ताह कोई न कोई लोक पर्व या व्रत-त्योहार आ धमकता है।
आदिवासी बहुल इस अंचल के लोग आर्थिक विपन्नता की वजह से भले ही अभावों में जीते रहे हों मगर प्रकृति की भरपूर मेहरबानी और उत्सवों की श्रृंखला का समावेश यहां के लोगों को सम सामयिक चुनौतियों से लड़ते हुए आगे बढ़ने के लिए नित नई ऊर्जा का संचरण करता है।

सामूहिक आनंद देती है गोठ
ताजगी और नवीनता का अहसास करने आदिवासी अंचलों में गोठ खूब प्रचलित है। काम से फुर्सत पाने और नवीन ऋतुओं के आगमन की खुशी में प्राकृतिक दर्शनीय स्थलों, गांवों के मुहाने और देवालयों में सामूहिक पिकनिक होती है इसे ही ‘‘गोठ’’ कहा जाता है। इन सब में होली की गोठ ख़ासा रोमांच बिखेरते हुए आनंद से सरोबार कर देने वाली होती है।

दक्षिणांचलीय लोक जीवन में होली वही पर्व है जो तन-मन को आह्लादित कर देता है। इसी उल्लास की सामूहिक अभिव्यक्ति का दूसरा नाम ‘गोठ’ है। होली के दिनों में विभिन्न समुदायों में गोठ अपने-अपने ढंग से प्रचलित है।

वर्ष भर में जिसके घर-परिवार में संतानोत्पत्तिप, विवाह, ढूंढ़ और अन्य प्रकार के मांगलिक कार्यक्रम होते हैं उनके वहां से सामूहिक पिकनिक के लिए सामग्री और राशि के एकत्रीकरण को गोठ कहा जाता है। इसके लिए युवाओं, महिलाओं और बच्चों के अलग-अलग समूह होते हैं जो होली के दिनों में गोठ के लिए चंदा इकट्ठा करते हैं और प्राप्त धनराशि और सामग्री से होली के आस-पास के दिनों में विभिन्न प्रकार की पार्टियों के जरिये सामूहिक मौज-मस्ती लुटाते हैं।

श्रृंगार के उन्मुक्त रसों से सराबोर है होलिया गोठ

होली की गोठ श्रृंगार और प्रेम रसों में नहायी होती है। इसमें गोठ लेने वाले युवक और युवतियां लोक वाद्यों पर गाते-नाचते-थिरकते मांगलिक उत्सवी परम्पराओं वाले अपने समुदाय के परिवारों में जाते हैं और श्रृंगार गीतों और गुदगुदा देने वाले वाक्यों की बारिश करते हुए प्रेेम रस में नहलाते हुए गोठ मांगते हैं।

गोठ मांगने के बाद यह समूह गोठ देने वाले को भी शामिल कर लेता है। इस तरह गोठ मांगने वाले युवाओं और युवतियों का समूह अपना आकार बढ़ाता जाता है। चिह्नित सभी घरों से गोठ ले लेने के पश्चात यह समूह गांव के बाहर या किसी मंदिर के चौक पर अथवा अपने समाज की धर्मशाला में बैठकर सामूहिक चर्चा करते हैं और गोठ का दिन तथा मीनू इत्यादि तय करते हैं। होली के दिनों में ही निर्धारित तिथि को सामूहिक पिकनिक कर ली जाती है। इसमें गोठ लेने वालों के अलावा भी लोग शामिल होते हैं। युवकों और युवतियों के समूह अपनी अलग-अलग गोठ करते हैं। इनमें एक-दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। यहां तक कि दोनों ही वर्गों में बुजुर्ग स्त्री-पुरुष भी शामिल होते हैं।

अन्य समाजों की तरह ही आदिवासियोें में भी नवजात शिशु आगमन की खुशी में होने वाले ढूंढ़ोत्सव के दौरान होली के दिनों में ली जाने वाली गोठ लोकप्रिय है। दक्षिणांचल वागड़ अंचल में होली के पांच दिन पूर्व ढूंढ़ोत्सव शुरू हो जाता है। आदिवासी युवक-युवतियां शादी-शुदा युवक के पास ही गोठ लेती हैं। अविवाहितों से कोई गोठ नहीें ली जाती। गोठ लेने वाली युवतियां नव विवाहित युवक के चारों तरफ घेरा बनाकर घेर लेती हैं। और फिर शुरू हो जाती है गीतों की बरसात। ‘‘

गोठ आलो गोठ आलो गोठ आलो वीरा रे, 

गोठ नी आले ते है है होरी ना दाड़ा रे,

नी आले त किदी आड़ी वाट रे, 

खिजाई नकी जाय रे, गदेड़े गाठ है।

होरी ना दाड़ा रे....।’’

गोठ अर्थात रुपया-पैसा नहीं मिलने तक गीतों की बरसात चलती रहती है। इसी तरह आदिवासी युवतियां गीत गा गाकर सभी नव विवाहित युवकों के पास से गोठ लेती हैं। इसके बाद जो भी रुपए इकट्ठा होते हैं, दुकान पर जाकर उनसे नारियल व गुड़ लेकर पार्टी कर लेती हैं तथा दूसरे लोगों को भी इस आनंद में सहभागी बनाती हैं। लोक जीवन में उल्लास बिखेरने वाली गोठ साल भर किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है।

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