गायब हुआ गण का सुकून तंत्र हथिया रखा है तांत्रिकों ने

- डॉ. दीपक आचार्य
आज के दिन हर कहीं, हर बार मचता है शोर, और दो-चार दिन की धमाल के बाद फिर खो जाता है, बिना पेड़ोंवाली पहाड़ियों के पार। आजादी के इतने सालों बाद भी गण को जिस तंत्र की तलाश थी उसका गर्भाधान तक नहींहो सका अब तक, या कि लाख प्रयासों के बाद भी एबोर्शन ने कहाँ पनपने दिया है तंत्र के पुतले को।
रोटी, कपड़ा और मकान के लिए आज भी आम आदमी दर-दर की ठोकरें खा रहा है। नून-तेल लकड़ी की जुगाड़में इतनी उमर खपाने के बाद भी गणतंत्र का परसाद वह अच्छी तरह चख भी नहीं पाया है। हमारा गणतंत्र बढ़तीउमर के बावजूद बौनसाई हालत में कैद पड़ा है। तंत्र तितर-बितर हो रहा है, कहीं इसे कुतरा-कुचला जा रहा है तोकहीं यह दीमकों के डेरों की भेंट चढ़ रहा है। कहीं पेन की नोक वाले पेंगोलिन तंत्र से चिपटकर खुरचने में लगे हैं।
किसी जमाने में गण के लिए बना तंत्र अब गिन-तंत्र बन गया है। जहां गण से वास्ता दूर होता जा रहा है और हरकोई गिनने में दिन-रात जुटा हुआ है। जिन मल्लाहों के भरोसे गणतंत्र की नैया है वे पाल की आड़ में पाँच सालतक एक-एक दिन गिन-गिनकर गिनने में जुटे हुए हैं।
फाईव स्टार होटलों, ए.सी. दफ्तरों से लेकर फार्म हाऊसों तक में आराम फरमाते हुए प्लानिंग बनाने वाले अपुनके कर्णधारों का अब न गुण से वास्ता रहा है न गण से। अलग-अलग रंगों के झंड़ों और टोपियों के साथ गण कीसेवा में उतरने वाले अखाड़चियों की हकीकत किससे छिपी है। गणतंत्र के कल्पवृक्ष ने पिछले बरसों में इतनेपतझड़ देखे हैं कि बेचारा गण सूखी

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